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कविताः पिता

-रचना दीक्षित

जाने क्यों

नहीं बदलते कभी पिता

मेरे हों या मेरे बच्चों के

जब देखो रहते हैं पिता

बचपन में देखा तो पिता

बड़ी हुई तो भी पिता

उम्र के इस पड़ाव पर

जब मैं अधेड़ और वे वयोवृद्ध

हैं वे आज भी पिता

क्या किरदार बदलना नहीं जानते

बदलना नहीं चाहते

अपने पिता के चोले से

निकलना  नहीं जानते

निकलना नहीं चाहते

ढोते हैं

अपने पिता होने को

अंदर ही अंदर

बच्चों के बदलते किरदार को

छुपा अपने चोले में

जीते हैं पिता बनकर

जाने क्यों

पिता कभी नहीं बदलते

जीते हैं ताउम्र पिता बनकर

(कवयित्री ब्लॉगर भी हैं, अपने ब्लॉग रचना रवीन्द्र पर 2009 से ही आप लिखती रही हैं)

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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