कविताः बहुरूपिया
-रचना दीक्षित सोचती हूँ माँ है बहुरूपिया या गिरगिट एक ही दिन में बदलती है असंख्य रूप रंग पर सब सार्थक लस्सी शरबत चाय में चीनी बन के घुलना रोटियों पर घी बन के पिघलना…
-रचना दीक्षित सोचती हूँ माँ है बहुरूपिया या गिरगिट एक ही दिन में बदलती है असंख्य रूप रंग पर सब सार्थक लस्सी शरबत चाय में चीनी बन के घुलना रोटियों पर घी बन के पिघलना…
-सरिता अधूरी ख्वाइशें को पूरा करने कुछ अधूरे सपनों को पूरा करने जाओ तुम फिर लौट आना… उन अनजान पलों में तुम अपने बनकर मदमस्त हवाओं में खुशबू बनकर चलती सांसो की वजह बनकर जाओ…
– मीना भारद्वाज पेड़ों की डाल से टूट कर गिरे चन्द फूल अलग नहीं हैं ब्याह के बाद की बेटियों से। आंगन तो है अपना ही पर तब तक ही जब तक साथ था डाल…
-बिकाश आनंद आंखें तरस रहीं, पलकें बरस रहीं, न जाने तन बदन में, ये कैसी हो रही हलचल ओह, फ़िर कल… रात न कटी, दिन जो है डटी , न जाने कब लौटेगा, ये बीत…