-रचना दीक्षित
सोचती हूँ
माँ है
बहुरूपिया या
गिरगिट
एक ही दिन में
बदलती है असंख्य रूप रंग
पर सब सार्थक
लस्सी शरबत चाय में
चीनी बन के घुलना
रोटियों पर
घी बन के पिघलना
चने के साथ गुड़ बन के सिमटना
मूंगफली के साथ
धनिया का नमक बन के सहिजना
धुले कपड़ों में
सुगंध बन के बसना
चोटियाँ गूंथते गूंथते
खुद भी गुंथ जाना
चोट लगने पर
रुई की फाह बन के माथे पे टिक जाना
कभी इमली
कभी इमली का दरख़्त होना
सर्दी में स्वेटर होना
देह पे लिपट जाना
मलाई बन के कभी चेहरे पे फुदकना
गर्मियों में सर्द हवा हो जाना
हर रंग रूप में मुझे वो भायी
करती रही हमारे दिल ओ दिमाग पर राज़
इतने सार्थक रूपों में मात्र एक निरर्थक रूप…
हमें न भाया
जाने क्या सूझा उसे
बिना कोई सवाल जवाब
एक दिन उठी
कमरे की दिवार पर लटके फ्रेम में गई
और तस्वीर हो गई
(कवयित्री ब्लॉगर भी हैं, अपने ब्लॉग रचना रवीन्द्र पर 2009 से ही आप लिखती रही हैं)
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