आप सोच रहे होंगे कि मैंने “चुनाव, वादा और किसान” इस लेख का शीर्षक क्यों लिखा? आप बिलकुल सही सोच रहे हैं। आपको बता दूं इन तीनों शब्दों में एक गहरा नाता है। हमारे देश में इन्हीं तीन शब्दों से भविष्य की राजनीति तय होती है।
जब-जब हमारे देश या किसी राज्य में चुनाव होते हैं तो बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं। खास कर किसानों के लिए। सभी राजनीतिक पार्टियों को पता है अगर सत्ता में आना है तो पहले किसान को अपने पाले में करना होगा। किसानों के लिए एक से बढ़ कर एक लुभावने वादे किए जाते हैं। यहां तक कि कर्ज माफ करने का वादा भी किया जाता है। यह भी सही है कि कर्ज के दलदल में फंसे किसान कर्ज से मुक्ति होने के लिए उसी पार्टी को वोट करते हैं जिस पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में किसानों के कर्ज माफ करने की बात कही हो।
आजादी के करीब 70 साल हो गए। लगभग सब कुछ बदल गया। जंगलों के जगह पर ऊंचे-ऊंचे कंक्रीट के जंगल बन गए। गांव शहर में तब्दील होने के कगार पर है। अगर कुछ नहीं बदला तो वो किसानों को स्थिति। उस समय भी किसान कर्ज में दबे थे और आज भी किसान कर्ज में ही दबे हैं। फर्क बस इतना है कि उस समय किसान साहूकारों से कर्ज लिया करते थे और आज साहूकार के साथ-साथ बैंक भी कर्ज देने लगे। किसान उस समय भी ऋणी थे और आज भी।
हमारे देश मे करीब 70 फीसद आबादी गांवों में बसती है। गांव के करीब 80 फीसद लोग कृषि पर निर्भर हैं। वहां के लोगों की आय का स्रोत कृषि ही है। कृषि से आए पैसों से ही उनके परिवार का भरण-पोषण होता है। इतना ही नहीं उनको कुछ रुपये बचा कर भी रखना पड़ता है ताकि अगले फसल की बोआई के लिए खाद्य बीज ला सकें।
कहने के लिए तो हमलोग किसान को अन्नदाता कहते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि हम कभी भी उनकी कद्र नहीं करते हैं। हमें खाद्य पदार्थ सस्ता ही चाहिए। हम कभी ये नहीं सोचते कि उनको कितना मेहनत लगा होगा? कैसे मंडी तक समान लेकर आए होंगे? हमें तो बस सस्ता से मतलब हैं। मंडी में तो ऐसा लगता है कि किसान अनाज बेचने नहीं आए हो बल्कि अनाज के बदले में बिचौलियों से भीख मांग रहे हों।
कुछ दिन पहले महाराष्ट्र से एक खबर आई थी, जिसमें बताया गया था कि किसान को 1000 किलोग्राम प्याज का कीमत मात्र 764 रुपया मिला। यानी एक किलोग्राम प्याज की कीमत एक रुपया भी नहीं। जरा सोचिए क्या एक किलोग्राम प्याज उगाने में एक रुपये का खर्च आया होगा? खर्च और मेहनत और मजदूरों की मजदूरी की कीमत एक रुपये ही है?
कई बार इसी तरह से घाटे में जाने के बाद किसान कर्ज के दलदल में फंसते जाते हैं। कर्ज से छुटकारा पाने के लिए वो सरकार से गुहार लगाते हैं। लेकिन, सत्ता के नशे में चूर नशेड़ी सत्ताधारी किसानों की एक बात नहीं मानती। अगर किसान सरकार के खिलाफ सड़क पर आ जाए तो उन पर नशेड़ी सत्ताधारी पानी की बौछार, आंसू गैस के गोले छोड़े जाते हैं। विधायक और सांसद के मासिक वेतन तो आसानी से बढ़ जाते हैं लेकिन, किसान के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ पाते। ना जाने ऐसा क्यों होता हैं?
जैसे ही हमारे देश में चुनाव होने वाला होता है, एक से बढ़ कर वादे दावे किए जाते हैं। चुनाव के समय नेता किसान को लुभाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। मैं आपको स्पष्ट कर दूं चुनाव, वादा और किसान में अप्रत्यक्ष रूप से एक गहरा संबंध है। किसान को चनावी वादे एक उम्मीदों की किरण की तरह लगता है और इसी वादे के सहारे वो लोग सत्ता पर काबिज भी हो जाते हैं। शायद आप को समझ आ गया होगा कि किस तरह से चुनाव, वादा और किसान में संबंध हैं।
मेरा मानना है कि नेता जी कर्ज माफी का वायदा करके कुछ दिनों के लिए तो किसानों को राहत दे सकते हैं ना कि जीवन भर के लिए। इससे अच्छा होगा कि नेता जी मंडी की हालत को बदलें। बिचौलियों को मंडी से निकाल बाहर फेंकें ताकि किसानों को उचित मूल्य मिले। साथ ही ग्राहकों को भी उचित दामों पर अनाज व सब्जियां मिल सके। सरकारी कोष में जाने वाली अनाज पर भी किसानों को उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलें। फिर शायद ही किसान कभी कर्ज के दलदल में फसेंगे। किसान आत्मनिर्भर भी हो जाएंगे और जीवन खुशी से निर्वाह कर सकेंगे। यह तभी संभव हो सकेगा जब “चुनाव, वादा और किसान में जो अभी संबंध है वो पूरी तरह से खत्म हो जाए।
-धीरज कुमार
(यह लेखक के निजी विचार हैं। फोरम4 का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है)
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