‘इंडियापा‘। आप सोच रहे होंगे यह कैसा नाम है, मेरे दिमाग में भी सबसे पहले यही आया था। दरअसल यह एक प्रेम पर आधारित उपन्यास है। उपन्यासकार विनोद दूबे ने इसे आत्मकथात्मक शैली में लिखा है। इसे पढ़ने के बाद यह फ़र्क़ आपको समझ आ जाएगा कि प्यार के बाद कोई ऐसा रिश्ता शादी में क्यों नहीं तब्दील हो पाता जिसमें सब कुछ अच्छा हो। एक इंसान की जिंदगी में प्यार के बाद क्या बचता है?
उपन्यासकार विनोद दूबे जो वर्तमान में सिंगापुर में मर्चेंट नेवी में कैप्टन हैं वो यूपी के हिंदी मीडियम से पढ़े हुए एक छोटे से गांव के रहने वाले हैं। उन्होंने कहानी में बनारस और विदेश में नौकरी के दौरान जहाजी सफर को इस तरह लिख दिया है, शायद ही कोई इस शैली में लिख सके। उन्होंने हर खूबसूरत एहसास को वास्तविकता को और यहां तक कि नायक और नायिका दोनों के पक्षों की बात करके कथानक को और भी सजीव बना दिया है। लेखक का यह पहला किताब है, लेकिन बनारस का माहौल कह लीजिए या इंडिया का माहौल औऱ उसकी कहानी आपको अपनी कहानी लगेगी। इसमें लिखी हर लाइन ऐसी लगेगी जैसे सब कुछ सच हो और आपके जीवन से ही संबंधित हो। यह उपन्यास बिल्कुल बॉलीवुड स्टाइल में लिखी गयी कहानी ही है जिसमें हिंदी के शब्दों के बीच में अग्रेजी को ला दिया गया है। बिल्कुल सरल बनाने के लिए बोलचाल की भाषा बनाने के लिए।
कहानी में क्या है?
कहानी में पात्र या कह लें हीरो सागर शुक्ला हैं और हीरोइन यानी नायिका भक्ति सिंह हैं। इन दोनों की प्रेम कहानी पति पत्नी में तब्दील न हो पाने का कारण इंटरकास्ट का होना है और यह इसलिए ही क्योंकि सरनेम शुक्ला और सिंह एक दूसरे के लिए प्यार करने का कारण बनने में बाधा नहीं बन पाते लेकिन शादी के समय यह शुक्ला जी की मम्मी की खुशी के लिए प्यार का शादी में तब्दील न हो पाना देश में एक बहुत बड़ी विडंबना ही है। यही वजह है कि एक तरफ प्यार को छोड़ना और एक तरफ घर में वह भी सबसे करीब मां को छोड़ने का सवाल धर्म संकट के रूप में सामने आ पड़ता है और फिर कहानी में एक पात्र शुक्ला का दोस्त बचपन का यार राजू यानी नेता का रोल करता है। बिगड़ैल लड़का, मस्त लड़का या कुछ भी कह लें लेकिन सागर शुक्ला को सही सुझाव देता है तभी यह कहानी लिख दी जाती है। तभी प्रेम इस कदर हावी हो जाता है कि सदैव ऐसी कहानियां अमर हो जाती हैं।
कहानी में इंडिया में प्रेम का समर्पण, बातचीत करना खासकर बनारस में इस तरह शुरू हो पाना कि एक दूसरे को जान सकें और फिर रिश्तों को चोरी छुपे निभाना यानी वह सब कुछ लिखा है जो यहां कि संस्कृति को परिभाषित करने की कोशिश होती है। बीच-बीच में आपको व्यंग्य भी ऐसे लगेंगे कि वो बहुत ही सीरिय़स होकर लिखे गए हैं मजाक भी आपको लगेगा कि कितने स्टाइल में सीरियस चीजों को सही शब्दों में उड़ेल दिया गया हो। इस कहानी में एक अन्य पात्र सारिका जो कि भक्ति सिंह की दोस्त होती है काफी कुछ भक्ति की तरफ की बात करने में सफल हो जाती है। इसलिए कहानी और भी अपने आप में पूर्ण लगने लगती है।
कहानी में क्या खास है?
उपन्यास य़ह बिल्कुल अलग तरीके की लिखी गई है। बनारस का जिक्र एक तरफ तो दूसरी ओर विदेश में पनामा का जिक्र और जहाज का जिक्र एक दूसरे से ठेठ भाषा में इस तरह से जोड़कर किया गया है कि बहुत सारी चीजें कई सारे एहसास एक साथ जागृत हो जाएगे यानी आप अपनी ही दुनिया में हर लाइन में घूमते हुए नजर आएंगे, आप खुद की प्रेम कहानी को समझने लग जाएंगे। बचपन के बाद पढ़ाई लिखाई और फिर नौकरी, ठीक उसके बाद प्यार और शादी तक की कहानी में अरेंज्ड और लव मैरिज का फर्क इस तरह आपको समझ आ जाएगा कि इंडिया में यह वास्तविकता किस हद तक लोगों को किसी मुकाम तक पहुंचाने में सफल हो जाती है। कितना संघर्ष है जीवन में यहां तक पहुंचने में। इन सारी चीजों को बॉलीवुड के कुछ गानों और उनसे जुड़े अहसासों को ऐसे लिंक किया गया है आपके अंदर भरे हर अहसास के गुब्बारे फूट-फूट कर आपको हंसाएंगे, रुलाएंगे, कुदेरेंगे भी औऱ दूर-दूर तक उसकी महक बिखेरेंगे भी।
एक प्रसंग पढ़िए इस किताब से
मार्च की उस शाम में जब सूरज आधा हीं डूबा था, थोड़ी सी सिहरन थी। गंगा के शांत पानी मे उसकी किरणों की लाली किसी के पैरों के महावर की तरह फैली थी। मेरे अन्दर चल रहे तूफ़ान से कोसों दूर, उस घाट पर लोग हमेशा की तरह अपनी धुन मे मगन थे। संध्या-स्नान के बाद माथे पर चन्दन का टीका लगाते कुछ सन्यासी, दूर से ही संध्या आरती का अज़ान पढ़ती कुछ मंदिरों की घंटिया, गंगा आरती की तैयारी मे लगा सफेद और पीले कपड़ों मे पंडितों का एक हुजूम, आश्चर्य भरी आँखो से गंगा घाट की खूबसूरती निहारते कुछ अँगरेज़।
एक माँ अपने नन्हे बच्चे को आँचल मे छुपाए , गंगा से उसकी लंबी उम्र की दुआ मांग रही थी। एक नया-नया प्रेमी जोड़ा हाथ में हाथ पकड़कर चल रहा था। उनके नये नये शरमाते रिश्ते की तरह उनकी उंगलियाँ भी चलते चलते कभी एक दूसरे को छू लेती थीं, तो कभी शरमा के दूर चली जाती थीं। एक शादी-शुदा जोड़ा पंडित जी को साक्षी बनाकर, गंगा मैया से इस बात का आशीर्वाद ले रहा था कि उनकी खुशियों को किसी की नज़र ना लग जाए। एक उम्रदराज़ जोड़ा एक दूसरे का सहारा बनकर घाट की सीढ़ियाँ उतर रहा था। एक दूसरे को हर सीढ़ी के बाद वे दोनो ऐसे देखते थे, जैसे डर था कि न जाने कौन सी सीढ़ी पर उनमे से कोई ठहर जाए, और दूसरे को बिना सहारे के आगे बढ़ना पड़े। वहीं बगल के मणिकर्णिका घाट पर अलग बेबसी का नज़ारा था. कुछ लोग अपनों को मुखाग्नि देने की तैयारी में थे, इस कसमकस के साथ कि अब जिंदगी में कभी भी वो चेहरा नहीं दिखेगा।
रिश्तों का रंगमंच मेरी आँखों के सामने था। इन घाटों पर पहले भी, एक हीं पिक्चर फ्रेम मे , मैंने जीवन से मृत्यु तक का सफ़र देखा था। पर आज , इसी फ्रेम में पहली बार मैं अपने रिश्ते को बनते और सिमटते देखने जा रहा था।‘
कहानी में कुछ कमजोर पक्षों को अगर नजरअंदाज करें जैसे बहुत ज्यादा सस्पेंस जैसा कुछ नहीं दिखता। कई जगह आपको कहानी बांधते नजर नहीं भी आ सकती। भाषा को लेकर सवाल उठा सकते हैं, तो यह आराम से एक बार पढ़ी जा सकती है औऱ सीमित पात्रों के इर्द गिर्द घूमती पूरी कहानी अपने आप में पूर्ण नजर आएगी।
यह किताब हिंद युग्म से प्रकाशित हुई है, इसमें 176 पेज हैं। इसका प्रिंट मूल्य 100 रुपये है, लेकिन यह आमेजन पर मात्र 80 रुपये में उपलब्ध है।
-प्रभात
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