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विशेषः जनकवि, जिन्होंने प्रधानमंत्री तक के खिलाफ लिखा, जानिए जिन्हें मारने की योजना भी बनी थी

-सुकृति गुप्ता

“जनकवि हूँ, मैं साफ़ कहूंगा, क्यों हकलाऊं”

आज उस आदमी का जन्मदिन है, जिसे घूम-घूम कर कविता लिखने का शौक था। घूमने का इतना शौक फ़रमाते थे कि बीवी के पास भी नहीं टिके। पूछने पर कि क्या आप और आपकी बीवी कभी साथ रहे हैं? उनका जवाब था-” जिसको बहत्तर चूल्हों का मुंह लगा हो, वो एक चूल्हे का खाना क्यों पसंद करेगा!”

उन्होंने सारी ज़िंदगी घूमने में निकाल दी। पर महज़ घूमे ही नहीं, घूमकर कई ज़िंदगियों को देखा, उन्हें पहचाना, उन पर लिखा। जिन पर लिखा, उन्हीं की ज़िंदगी का हिस्सा बन गए। उनके दिलों में बस गए।

हम बात कर रहे हैं कवि नागार्जुन की। तुलसीदास के बाद नागार्जुन हिन्दी भाषा के दूसरे ऐसे कवि माने जाते हैं जो आम जन में बहुत लोकप्रिय हुए। यही कारण है कि उन्हें जनकवि कहा जाता है। इस संदर्भ में नागार्जुन खुद कहते हैं-

“जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ

जनकवि हूँ, मैं साफ कहूँगा, क्यों हकलाऊं”

वरिष्ठ साहित्यकार मंगलेश डबराल ने 28 जून को जेएनयू में आयोजित नागार्जुन स्मृति सम्मान समारोह में लेक्चर दिया था। लेक्चर देने के दौरान वे कहते हैं-“वे जनता के लिए ही नहीं, बल्कि जनता के पक्ष में भी लिखा करते थे।” अब चूंकि जनता के पक्ष में लिखते थे इसलिए बगावती भी थे। जो कुछ भी जनता के विरुद्ध होता था, उस पर लिख देते थे। उस दौर की राजनीति पर भी उन्होंने बखूबी लिखा है। कई आंदोलनों में शामिल हुए और कई दफ़ा जेल भी गए। 1939 में कृषक आंदोलन का नेतृत्व करने पर उन्हें जेल में डाल दिया गया। गांधी पर लिखी उनकी कविता को ज़ब्त कर लिया गया था और उसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल होने के कारण भी वे 11 महीने जेल में रहे।

मंगलेश डबराल कहते हैं-“नागार्जुन को समझने के लिए, उस दौर की पूरी परंपरा को समझने की ज़रूरत है। वे परंपरा को अपने संवाद से नहीं, बल्कि उसके विरुद्ध परंपरा से समझने का प्रयास करते थे।”

वे उन कवियों में नहीं थे जिन्होंने आत्मकेंद्रित  कविताएँ लिखीं। वे महज़ मनोरंजन के लिए कभी नहीं लिखे। उनका रचना संसार बहुत ही विस्तृत है। इतना विस्तृत कि उसकी पहुँच हाशियों पर पड़े लोगों तक भी है। उनकी कविताओं में जहाँ एक ओर बड़े-बड़े नेताओं पर व्यंग्य है, तो वहीं दूसरी ओर किसान-मज़दूर भी हैं।

कवि नागार्जुन का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। उनका जन्म 30 जून, 1911 को बिहार के सतलखा गाँव में हुआ था। उन्होंने हिन्दी के अलावा मैथिली, बंगाली और संस्कृत में लिखा। उन्होंने कविताओं के अलावा उपन्यास कहानियाँ, जीवनियाँ, निबंध और घुमक्कड़ी के किस्से भी लिखें, पर उनको असल पहचान जनकवि के रूप में ही मिली।

वे कवि कैसे बने

इसका सबसे आसान जवाब है-बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि हिन्दी के दूसरे कवि बने! बाकि के तमाम कवियों की तरह उनका जीवन भी अभावों से गुज़रा! अभावों से गुज़रना ज़रूरी होता है क्योंकि फिर कवि बनना आसान हो जाता है। वे जब महज 3 बरस के थे, तभी उनकी माँ का देहांत हो गया था। उनके पिता गोकुल मिश्र तरौनी गाँव के एक किसान थे और पुरोहित आदि के सिलसिले में आस-पास के गाँवों में घूमा करते थे। शायद तभी से उन्हें घुमक्कड़ी का शौक लग गया। चूंकि उनके पिता उन्हें कोई खास सुविधाएँ मुहैया नहीं करा सके, इसलिए रिश्तेदारों के सहयोग से बड़े हुए। शुरू में उन्होंने पैसे कमाने के लिए ही कविताएँ लिखीं।

हिन्दी के अलावा वे मैथिली, बंगाली और संस्कृत में भी लिखा करते थे। हिन्दी में वे ” नागार्जुन” और मैथिली में “यात्रि” के नाम से लिखा करते थे। मंगलेश डबराल बताते हैं कि उन्होंने कविता लिखने की शुरुआत संस्कृत में की। बचपन में पढ़ने के साथ-साथ श्लोक लिखा करते थे। इसके लिए उन्हें पैसे मिलते थे। अपने लेखन की वजह से कई दफ़ा मुसीबत में भी फसे। उन्होंने जब अपनी मंत्र कविता लिखी तो तमाम पंडितों ने उनको मारने की योजना बना ली थी। उनको लगा कि बाबा (प्यार से साहित्य प्रेमी उन्हें बाबा ही कहते हैं) ने उनके मंत्रों का अपमान किया है।

ॐ द‌लों में एक द‌ल अप‌ना द‌ल, ॐ

ॐ अंगीक‌रण, शुद्धीक‌रण, राष्ट्रीक‌रण

ॐ मुष्टीक‌रण, तुष्टिक‌रण‌, पुष्टीक‌रण

ॐ ऎत‌राज़‌, आक्षेप, अनुशास‌न

ॐ ग‌द्दी प‌र आज‌न्म व‌ज्रास‌न

ॐ ट्रिब्यून‌ल‌, ॐ आश्वास‌न

ॐ गुट‌निरपेक्ष, स‌त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़‌

ॐ छ‌ल‌-छंद‌, ॐ मिथ्या, ॐ होड़‌म‌होड़

ॐ ब‌क‌वास‌, ॐ उद‌घाट‌न‌

ॐ मारण मोह‌न उच्चाट‌न‌

एक दफा जब उनसे पूछा गया कि आपने कभी कोई प्रयोगात्मक कविता क्यों नहीं लिखी? उन्होंने जवाब दिया-“ये (यानि मंत्र) प्रयोगात्मक कविता ही तो है! वाकई प्रयोगात्मक है। प्रयोगात्मक न होती तो इतना बवाल ही क्यों होता। मंत्र को हम उनकी पहली प्रयोगात्मक रचना मान सकते हैं।

बाबा “वैद्यनाथ मिश्र” से “नागार्जुन” कैसे बने

चूंकि बाबा एक पंडित परिवार से थे, इसलिए उनकी आरंभिक शिक्षा संस्कृत में हुई। आगे की पढ़ाई उन्होंने स्वाध्याय से की।

एक बार बाबा ने राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनूदित “संयुक्त निकाय” पढ़ा। यह ग्रंथ मूल रूप से पालि में था। बाबा की इच्छा हुई कि इसे मूल पालि में ही पढ़ा जाए। बस फिर क्या था, बाबा लंका चले गए। वहाँ वे खुद पालि पढ़ते थे और मठ के “भिक्षुओं” को संस्कृत पढ़ाते थे। यहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म का अध्ययन किया और अपना नाम नागार्जुन रख लिया। दरअसल “नागार्जुन” एक प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक थे। उन्हीं के नाम पर उन्होंने अपना नाम “नागार्जुन” रखा था।

बाबा की कविताओं में जन की आवाज़

जैसा कि पहले भी कहा गया है कि बाबा बागी थे, क्रांतिकारी थे। आज़ादी के पूर्व भी और आज़ादी के बाद भी कई आंदोलनों में भाग लिया। बगावत  की। कई दफ़ा जेल गए। तमाम गलियाँ घूमें। पर जिन भी गलियों में घूमें, जनता की पीड़ा को साथ लेते चले-

      कैसे लिखूं शांति की

            कविता

      अमन चैन को कैसे 

       कड़ियों में बांधू

         मैं दरिद्र हूँ…

      मैं न अकेला…

     मुझ जैसे तो लाख-लाख

       हैं, कोटि-कोटि हैं

औपचारिक तौर पर बाबा ने 1945 से लिखना शुरू किया। इससे बहुत पहले से ही बाबा लिखने लगे थे। 1933 में “राम के नाम” उनकी पहली हिंदी कविता थी जो “देशबंधु” में प्रकाशित हुई थी।

बाबा ये तो नहीं जानते थे कि वह कवि बनकर पैदा हुए हैं, पर ये ज़रूर जानते थे कि वे जो लिख रहे थे वह कविता ही है। किसी कवि ने ही लिखा है-

“सिर्फ कविता करना ही नहीं, कवि का कर्म होना चाहिए,

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए”

बाबा की कविताओं में वो मर्म था। फिर चाहे उन्होंने प्रकृति के सोंदर्य पर ही क्यों न लिखा हो। आम जन उनकी कविताओं का हमेशा हिस्सा रहे।

1966 में  बिहार में एक भयंकर अकाल आया था। अकाल को याद करते हुए उसकी विभीषिका का वर्णन वे अपनी कविता “अकाल और उसके बाद” में कुछ इस प्रकार करते हैं-

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास 
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास 
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त 
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

उनकी कविताओं में जन का दर्द तो है ही, पर साथ ही रिश्तों का मर्म भी है। उनकी एक कविता है “गुलाबी चूड़ियाँ” जिसकी खनक में  पिता का अपनी नन्हीं बेटी के प्रति स्नेह झलकता है-

प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से ऊपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूडियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं… 

राजनीति पर भी किया व्यंग्य, पर राजनीतिक नहीं थे

बाबा की कविताओं में जन की आवाज़ थी इसलिए उनका संघर्ष गरीबी और भूख को लेकर था। उन्होंने उस दौर की राजनीति पर कविताएँ लिखीं, पर वे कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने कहा है- “उन्होंने जनता से जो लिया, उसे कवि के रूप में जनता को वापिस देना होगा।” इसीलिए हमेशा संघर्षरत रहे।

 

1939 में जब उन्होंने छपरा में किसानों के साथ संघर्ष किया था तो उन्हें जेल जाना पड़ा था। उन्हें उसी जेल में रखा गया था जहाँ कभी जयप्रकाश नारायण नज़रबंद थे। जयप्रकाश नारायण वही हैं जिनका बाबा ने खुल कर समर्थन किया। खासकर आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष में। उनकी एक कविता है “पाँच पूत”। इस कविता में पहले चार पूत हैं- पंडित चंद्रशेखर आज़ाद, नेताजी सुभाष चंद बोस, जिन्ना और पंडित जवाहरलाल नेहरू । पाँचवा पूत कौन है, यह स्पष्ट नहीं है, पर कई आलोचकों का मानना है कि ये पाँचवे पूत जयप्रकाश नारायण ही हैं-

पांच पूत भारत माता के, दुश्मन था खूंखार

गोली खाकर एक मर गया, बाकि रह गए चार!

चार पूत भारत माता के, चारों चतुर प्रवीन,

देश निकाला मिला एक को, बाकि रह गए तीन।

तीन पुत्र भारत माता के, लड़ने लग गए वो, 

अलग हो गया इधर एक, बाकि रह गए दो।

दो बेटे भारत माता के, छोड़ पुरानी टेक,

चिपक गया है इक गद्दी से, बाकि रह गया एक।

एक पुत्र भारत माता का, कंधे पर है झंडा,

पुलिस पकड़ कर जेल ले गई, बाकि रह गया अंडा।

उन्होंने अपनी कविताओं में तत्कालीन राजनीति पर खुलकर व्यंग्य किया है। जो कुछ भी गलत लगता है, बिना हकलाए कह देते हैं। जिनके समर्थक रहे उनके विरुद्ध जाने से भी नहीं कतराते। कभी नेहरू के समर्थक रहे बाबा उनकी आलोचना करते हुए लिखते हैं-

“वतन बेचकर पंडित 

नेहरू फूले नहीं समाते हैं

बेशर्मी की हद है फिर भी

बातें बड़ी बनाते हैं

अंग्रेज़ी, अमरीकी जोकों

की जमात में हैं शामिल

फिर भी बापू की समाधि 

पर झुक-झुक फूल चढ़ाते हैं…”

इसी तरह “आओ रानी हम ढोएंगे पालकी”, “शासन की बंदूक” आदि कई कविताएँ हैं जो उस दौर की राजनीति पर व्यंग्य कसती हैं। उनका ये व्यंग्य आम जन की चिंता से उत्पन्न होता है। चिंता पर गया चिंतन ही उनकी कविताओं में नज़र आता है।

ये चिंतन आपातकाल के दौरान भी नज़र आता है। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन का हिस्सा बनकर वे खुलकर इसका विरोध करते हैं। कभी इंदिरा गांधी के समर्थन में उन्हें  “बाघिन” कहने वाले बाबा उनके खिलाफ़ भी लिख देते हैं-

“छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको

काले चिकने माल का मस्का लगा आपको

किसी ने टोका तो ठस्का लगा आपको

अन्ट-शन्ट बक रही जनून में

शासन का नशा घुला ख़ून में

फूल से भी हल्का

समझ लिया आपने हत्या के पाप को

इन्दु जी, क्या हुआ आपको

बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!”

बाबा की विचारधारा क्या थी

बाबा बड़े आज़ाद किस्म के इंसान थे। इतने आज़ाद की किसी एक विचारधारा पर टिकते ही नहीं थे। पहले गाँधी-नेहरू विचारधारा के समर्थक रहे, फिर उसके खिलाफ हो गए। इंदिरा गाँधी की तारीफों के कसीदे काढ़े, फिर उनको भी उधेड़ दिया। कभी मार्क्सवादी रहे, कभी लेनिनवादी। यहाँ तक कि एक दौर ऐसा भी था जब वे नक्सलवादी विचारधारा के साथ खड़े नज़र आते हैं। वे जेपी आंदोलन का भी साथ देते नज़र आते हैं, मगर फिर उससे भी अलग हो जाते हैं।

उनके इस रवैये को लेकर उनकी आलोचना भी होती रही। आलोचक इस बात से परेशान रहते कि ये आदमी तो किसी एक के साथ टिकता ही नहीं है, फिर आखिर इसकी विचारधारा है क्या?

बाबा जन कवि थे। “जनता के लिए ही नहीं, जनता के पक्ष में भी लिखते थे।” जो भी गरीब को रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ा देने का वादा करता, उसके साथ हो जाते थे। जैसे ही धोखे का आभास होता अलग हो जाते। उनकी विचारधारा “जनवाद” है।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

2 Comments on "विशेषः जनकवि, जिन्होंने प्रधानमंत्री तक के खिलाफ लिखा, जानिए जिन्हें मारने की योजना भी बनी थी"

  1. सुन्दर आलेख। आभार।

  2. दिग्विजय अग्रवाल | June 30, 2018 at 7:52 PM | Reply

    बाबा नागार्जुन जी को सादर नमन
    सादर.।।

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