अलसाई धुंधली सुबह के बाद बड़े दिन हुए चमकीली धूप निकली। लग रहा था कि कितने दिनों की नींद से ये कूनो का जंगल सोकर उठा है। ओस ने नहला के इसे राजा बेटे सा तैयार करके धूप सेंकने को बैठा दिया। धूप देखकर वो सहरिया लड़की लकड़ियां बीनने चली आई। दो चार लकड़ियां बस उठाई उसने और फिर बैठ गई पेङ से सटकर। मिट्टी को कुरेदने लगी तभी पत्तियों की चरमराहट से उसकी उंगलियां ठिठक गईं। पीछे पलटकर देखा तो उसके होठों पर मुस्कान खेल गई। उसका “दोस्त” चला आ रहा था। रंगबिरंगा पाग पहन के। चौंक कर उठकर उसने लड़के को देखा और फिर झूठे गुस्से से मुंह बना लिया…इत्ती देर क्यों लगाई?
“तेरे लिए बेर लेने गया था” और लड़के ने बेर अपनी दोस्त के हाथ में रख दिए।
उस मुट्ठीभर खुशी को देखकर लड़की की आखें चमक गई।
दोनों अलग अलग सहराने के लड़का लड़की थे। जंगल में लकड़ी बीनने में बिना कुछ कहे सुने “दोस्ती” हो गई। लड़का रोज ही कभी इमली तो कभी बेर तो कभी भुने चावल के रूप में एक मुट्ठी खुशी लड़की के हाथ में रख देता और धीरे-धीरे ये जाने कब उनकी आदत बन गई। कूनो का जंगल रोज उन दोनों की हंसी ठिठोली का गवाह बनता।
“ये रंगबिरंगा पाग कहां से लाया”
“बापू आए हैं जयपुर से, वो ही ले आए हैं।”
“खूब जंचता है रे”
“हाँ… बापू को बड़ा काम मिल गया है। सेठ भी अच्छा आदमी है।”
“तो तू कौन सा कम लग रहा है रे सेठ से”…. और कूनो आज फिर उनकी हंसी से गूँज उठा।
“हाँ तो मैं भी बनूंगा न सेठ… इस बार बापू के साथ मैं भी तो जाऊंगा जयपुर”
लड़की ने जैसे कुछ गलत सुन लिया।
“क्या कह रहा है?”
“हां…बापू ने कहा है कि दो जन कमाएंगे तो घर में ज्यादा पैसा आएगा।”
“क्या करेगा इतने सारे पैसे का…जरूरत तो तेरे बापू की कमाई में पूरी हो जाती है न?”
“सेठ बनूंगा सेठ….सपने खरीदूंगा”
लड़की का मन हुआ भाग कर जाए मंदिर की टेकरी पर और बांध आए अपनी मन्नत एक धागे से। ऐसा मजबूत हो धागा के “दोस्त” के पैरों को बांध ले। उसे जाने न दे।
लड़का बकबक करता जाता और लड़की उसकी आँखों में सपने खरीदने की ललक को देखती जाती और फिर धीरे-धीरे उस मन्नत के धागे से लड़की ने अपने मन को ही बांध लिया।
“कब जाएगा?”
“कल सबेरे ही।”
दोनों ने बातें करते करते लकड़ियां भी बीन ली। आज लड़की ने थोड़ी ज्यादा लकड़ी बीनी… रात को चूल्हे में उसे कुछ अरमान भी जलाने थे।
थोड़ी देर बाद लड़के ने अपनी दोस्त को अलविदा कहा और चल दिया।
लड़की अपने “दोस्त” को जाते हुए देख रही थी।
बचे हुए चार बेरों को उसने अपने मटमैले दुपट्टे के कोने में बांध लिया और झिलमिलाती आंखों से अपनी खाली हथेली पर तलाश रही थी मुट्ठीभर खुशी…
-डिम्पिका पवार
(डिम्पिका पत्रकारिता की छात्रा हैं और साहित्य में भी रुचि रखती हैं)
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