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महिलाओं के दायरे सीमित करना सोची समझी रणनीति तो नहीं

महिला, मतलब अनेक रूपों में समाहित एक कार्यरत स्त्री। जिसे हर समय समाज में बेहतर वातावरण देने का प्रयास किया जाता रहा है। महिलाओं को हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी को बढ़ावा दिया जाता रहा है। जो महिलाएं पितृसत्तात्मक बोझ तले दबी हैं उन्हें आज के परिवेश में कदम से कदम मिला के चलने के लिए अनेकों कार्य किए जा रहे हैं। लेकिन, एक विरोधाभाष यह भी है कि कुछ क्षेत्रों में महिलाएं सीमित सी हो गई हैं। राजनीति का ही क्षेत्र देख लें आप। हालियां दिनों में सम्पन हुए चुनाव में सिर्फ सरकारें ही नहीं बदली हैं बल्कि और भी बहुत कुछ बदला है। आज भारत के 29 राज्यों में सिर्फ एक महिला ही किसी राज्य का नेतृत्व कर रही है। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अकेली ऐसी महिला हैं जो राजनीति के मुख्य धारा में है। हालांकि, इससे पहले भी कई महिलाएं कई राज्यों में मुख्यमंत्री रही हैं और आज भी राजनीति में सक्रिय हैं। लेकिन, अब वो नेतृत्व प्रणाली से दूर हैं। मंगलवार को राजस्थान के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री अशोक गहलोत मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण हुआ। शपथ ग्रहण में 23 मंत्रियों को मंत्री पद का शपथ दिलाया जाता है, जिसमें मात्र एक महिला होती है। अब सवाल यह है कि जिस पद से महिला जनता की सेवा करनी चाहती है उसे सीमित तो नहीं किया जा रहा है? मुख्यमंत्री के दौड़ में मात्र पुरुष प्रधान ही कायम रहेगा या महिलाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए?

समस्या यहीं नहीं ख़त्म होती है। पिछले सप्ताह फिल्म जगत से जुड़े कुछ प्रतिनिधि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने दिल्ली के राज भवन में पहुंचे। प्रधानमंत्री से मिलने की वजह फिल्म निर्देशक के रूप में महिलाओं के गिरते स्तर को लेकर थी। लेकिन, इस प्रतिनिधि मंडल में दिलचस्प बात यह थी कि इस प्रतिनिधि समूह में एक भी महिला सदस्य नहीं थी। आज फिल्म जगत में अभिनय के क्षेत्र में कई बड़े-बड़े अभिनेत्रियों का बेशक नाम है, लेकिन निर्देशक के रूप में गिनी-चुनी ही महिलाएं है।

आज के समावेशी उदाहरण के तौर पर एक तरफ महिलाओं के विजयगाथा का उदाहरण दिया जा रहा है, तो दूसरी तरफ उनके दायरे को सीमित भी किया जा रहा है। खेल और सिनेमा जगत में महिलाओं को सम्मानित किया जा रहा है, तो राजनीति में उन्हें नकारा जा रहा है। समय है हर क्षेत्र में महिलाओं को आगे करने का। सिर्फ कुछ विशेष क्षेत्र तक महिलाओं को सीमित कर देना भारतीय परम्परा का हिस्सा कभी नहीं रहा है। लिहाज़ा, खेल हो, सिनेमा हो राजनीति हो या किसी अन्य क्षेत्र में महिलाओं के भागीदारी को बढ़ावा देना हो, इन सभी क्षेत्रों में समूचे भारतीय समाज के साथ-साथ सरकार को भी ख़ासा ध्यान देने की ज़रूरत है। कार्यक्षेत्र में महिलाओं के गिरते स्तर को फिर से बुलंदी पर पहुंचने का अथक प्रयास ज़ारी रखने की आवश्यकता है।

-साहित्य मौर्य

(यह लेखक के निजी विचार हैं, इसका फोरम4 से कोई लेना देना नहीं है)

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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