-सुकृति गुप्ता
मैं उन बच्चियों को देखती हूँ
बारह, तेरह, चौदह, पंद्रह बरस की
उनके चेहरे की मासूमियत
उनका चुलबुलापन, उनकी मुस्कुराहट
उनका सँजना-सँवरना
लड़कों को देखकर खिलखिलाना देखती हूँ
कोई और भी है
जो उन्हें कनखियों से देखता है
उनके लड़कपन को नहीं
उनके उभरते यौवन को देखता है
उनके सिर पर नहीं
सीने पर हाथ फेरता है
उनके फूले गालों को नहीं
नन्हें स्तनों को खींचता है
फिर घसीटता है, पटकता है, दबाता है
फिर अपनी करतूत को छिपाता है
पर कुछ भी छिप नहीं पाता है
उनका फूला हुआ पेट दिख जाता है
अब मैं उन बच्चियों के फूले हुए पेट देखती हूँ
सोचती हूँ
जो कुछ भी उनमें है
उसका जिम्मेदार कौन है
उसकी जिम्मेदारी किसकी है
इस बात का फ़ैसला होना चाहिए
कुछ न कुछ हल निकलना चाहिए
अब सियासत उनकी ओर देखती है
इसका निचोड़ निकालती है
पूरे नौ महीने तक उनके शरीर को ही नहीं
उनके बचपन, उनकी मासूमियत को निचोड़ती है
और आखिरकार, निचोड़ निकाल ही देती है!
(सुकृति पत्रकारिता की छात्रा हैं और कई न्यूज पोर्टल के लिए लेख, कविताएं लिखती रहती हैं)
बहुत प्यारी रचना 🙂