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कविता में कहानी लिखने वाले पत्रकार और कवि खरे जिन्हें हमेशा याद किया जाएगा!

तस्वीरः गूगल साभार

-संजय भास्कर

हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष और नामचीन कवि विष्णु खरे (78) का बुधवार को दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में निधन हो गया। बीते 12 सितंबर को ब्रेन हेमरेज के बाद उन्हें यहां भर्ती कराया गया था। इसके बाद से ही उनकी हालत लगातार गंभीर बनी हुई थी। विष्णु खरे ने बीते 30 जून को हिंदी अकादमी का कार्यभार संभाला था। मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में 9 फरवरी 1940 को जन्में विष्‍णु खरे ने इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में एमए करने के बाद पत्रकारिता से अपने करियर की शुरुआत की थी।

कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया

न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो

सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया

न सुनो तो डरो कि सुनना लाजिमी तो नहीं था

देखो तो डरो कि एक दिन तुम पर भी यह न हो

न देखो तो डरो कि गवाही में बयान क्या दोगे

सोचो तो डरो कि वह चेहरे पर न झलक आया हो

न सोचो तो डरो कि सोचने को कुछ दे न दें

पढ़ो तो डरो कि पीछे से झाँकने वाला कौन है

न पढ़ो तो डरो कि तलाशेंगे क्या पढ़ते हो

लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं

न लिखो तो डरो कि नई इबारत सिखाई जाएगी

डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है

न डरो तो डरो कि हुक़्म होगा कि डर

(विष्णु खरे)

पत्रकारिता से की थी करियर की शुरुआत

वे कुछ समय तक खरे दैनिक अखबार ‘इंदौर समाचार’ में उप-संपादक रहे। इसके बाद उन्होंने गुजराती कॉलेज, इंदौर, रतलाम, रामपुरा और महू के राजकीय महाविद्यालयों में शिक्षण कार्य भी किया।

साल 1968 के बाद इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटैंट्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली में अंग्रेजी के एजुकेशन अफसर बने। इसके बाद साल 1976-84 के दौरान केन्द्रीय साहित्य अकादमी के उप-सचिव (कार्यक्रम) रहे। साल 1985 में उन्होंने नवभारत टाइम्स जॉइन किया। वह एनबीटी लखनऊ एडिशन के संपादक भी रहे। यह बहुत कम लोगों को पता है कि वह पत्रकार, आलोचक, कवि और अनुवादक होने के साथ -साथ वह अंग्रेजी के व्याख्याता भी थे। उनका काम कई रूपों में जाना जाता है। उनकी चार दशक पुरानी सृजन सक्रियता ने उनको राष्ट्रीय फलक पर स्थापित किया। विष्णु खरे ने दुनिया के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के चयन और अनुवाद का विशिष्ट कार्य भी किया है साहित्य में अपने योगदान के लिए उन्हें कई बड़े सम्मान से नवाजा गया है।

विष्णु खरे को ‘नाइट ऑफ द व्हाइट रोज सम्मान’, हिंदी अकादमी साहित्य सम्मान, शिखर सम्मान, रघुवीर सहाय सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से नवाजा जा चुका है।

हिंदी ने अपना साहसी कवि-आलोचक खो दियाः अशोक वाजपेयी

हिंदी के वरिष्ठ कवि और समालोचक अशोक वाजपेयी ने ठीक ही कहा कि हिंदी ने अपना सबसे बेखौफ और साहसी कवि-आलोचक खो दिया। उनकी कविता गहरी मानवीय संवेदना और शहरी जीवन की अनदेखी त्रासदियों, गैर बराबरी और मानवीयता को छूती है। आलोचनाओं और पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने एक प्रतिबद्ध लेखक की छाप छोड़ी।

हिंदी के एक और बड़े कवि मंगलेश डबराल कहते हैं, ”खरे ने जितना काम किया, जितनी विधाओं में किया, उसे देखकर आप विस्मय में पड़ जा सकते हैं। मैं तो यही कहूंगा कि वे कबीर, निराला और मुक्तिबोध के बाद हिंदी के आखिरी मूर्तिभंजक थे, जो अपने शब्दों के साथ हमेशा हम लोगों के बीच रहेंगे।”

गिरिधर राठी के मुताबिक, खरे हिंदी में शायद इकलौते आदमी थे जो इतनी भाषाएं जानते थे – चेक, जर्मन, अंग्रेजी, ऊर्दू, हिंदी, मराठी और शायद बांग्ला भी। फिल्मों के बारे में भी उन्हें बहुत जानकारी थी। उनके अनुवाद को देखें, वह अलग किस्म का लगेगा आपको। हां, वह स्वभाव से ऐसे व्यक्ति नहीं थे, जो आसानी से हर किसी के साथ घुल-मिल जाएं।

कविताओं में नये तरीके का बदलाव

विष्णु खरे के कविता लिखने का अंदाज थोड़ा अलग था। उन्होंने कहानियों के अंदाज में कविता या यूं कहें कि कविता में कहानी लिखा जिसका अनुसरण बाद वाली पीढ़ियों ने किया।

कुछ प्रमुख कृतियां हैं- टी.एस., एलिअट का अनुवाद ‘मरुप्रदेश और अन्य कविताएँ’ (1960), ‘विष्णु खरे की कविताएँ’ नाम से अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित पहचान सीरीज की पहली पुस्तिका , ख़ुद अपनी आँख से (1978), सबकी आवाज़ के पर्दे में (1994), पिछला बाक़ी (1998) और काल और अवधि के दरमियान (2003)। विदेशी कविता से हिन्दी तथा हिन्दी से अंग्रेजी में सर्वाधिक अनुवाद कार्य।

विष्णु खरे की नए प्रकार की कविता, पढ़िए जरूर

उसी तरह
कुछ ऐसा है
कि मैं अकेली औरतों और अकेले बच्चों को
ज़मीन पर बैठे खाना खाते नहीं देख सकता
पता नहीं क्यों मैं एक अनाम उदासी
और दुःख से घिर जाता हूँ
जबकि वे चुपचाप निवाले तोड़ते हुए या कौर बनाते
सारी दुनिया की तरफ़ पीठ किए हुए
एक अनाम दिशा में तकते जाने क्या सोचते अपना पेट भरते हैं
कभी-कभी एक आदिम लम्हे के लिए अचानक अपने आसपास देख लेते हुए
मैं इतना चाहता हूँ कि वे मुझे अपने पास इतनी दूरी पर इस तरह बैठने दें
जहाँ से वे मेरे चेहरे पर देख सकें कि मैं अपने मन में उनसे कह रहा हूँ
खाओ खाओ कोई बात नहीं

लेकिन मुझे मालूम है कि ऐसी किसी भी हरकत से
शान्ति से खाने की उनकी एकांत लय में विघ्न पड़ेगा
और वे आधे पेट ही उठ जाएँगे

इसलिए मैं खुद को इसी भरम से बहला कर चला आता हूँ
कि जहाँ ऐसी अकेली औरतें ऐसे अकेले बच्चे अपनी उस जून की कठिन रोटी खा रहे होते हैं
वहाँ एक वाजिब दूरी पर जो कुत्ते बैठे हुए हैं किसी खुश उम्मीद में बेहद हौले अपनी पूंछ हिलाते हुए
उनमें मैं भी शामिल हूँ अपनी वह बात कुछ उसी तरह कह सकने के लिए

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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