उन दिनों सुबह कितनी जल्दी हो जाया करती थीं। शाम भी कुछ जल्दी घिर आया करती थीं तब फूलों की महक भीनी हुआ करती थीं और तितलियां रंगीन। इन्द्रधनुष के रंग थोड़े चमकीले, थोड़े गीले हुआ करते थे। आंखों में तैरते ख़्वाबों जैसे सुबह होते ही चीं-चीं करती गौरैया छत पर आ जाया करती थीं दाना चुगने। उस प्यारी सी आवाज़ से जब नींद टूटा करती थीं तो बरबस ही एक मुस्कुराहट तैर जाया करती थी होंठों पर। यूं लगता था जैसे किसी ने बड़े प्यार से गालों को चूम के, बालों पर हौले से हाथ फेरते हुए बोला हो “उठो…देखो कितनी प्यारी सुबह है, इसका स्वागत करो”। सच कितने प्यारे दिन थे वो! बचपन से मासूम और रूहानी एहसास भरे!
कोहरे और धुंध को बेधती हुई धूप जब नीम के पेड़ से छन के छज्जे में आया करती थी तो कितनी मीठी हुआ करती थी। गन्ने के ताज़े-ताज़े रस जैसी ख़ुशबूदार और एकदम मुलायम। दादी की नर्म गोद सी। खुले आंगन में जब दादी अलाव जलाया करती थीं तो सर्दी कैसे फ़ौरन ग़ायब हो जाया करती थी। अब बन्द कमरों में घंटों हीटर के सामने बैठ कर भी नहीं जाती। उस अलाव में कैसे हम सब भाई-बहन अपने अपने आलू और शकरकंद छुपा दिया करते थे और बाद में लड़ते थे “तुमने मेरा वाला ले लिये वापस करो” कितनी मीठी लड़ाइयां हुआ करती थीं। वो मिठास कहां मिलती है अब माइक्रोवेव में रोस्टेड आलू और शकरकंद में…।
कभी सरसों के पीले-पीले खेत में दोनों बाहें फैला के नंगे पैर दौड़े हैं आप? हम्म…यूं लगता है मानो पूरी क़ायनात सिमट आयी हो आपके आग़ोश में…। कभी महसूस की है सरसों के फूलों की वो तीखी गंध? क्या है कोई इम्पोर्टेड परफ्यूम जो उसकी बराबरी कर सकता है कभी? शायद नहीं…। आज भी याद आती हैं गांव में बीती वो गर्मियों की छुट्टियाँ। सुबह आंख खुलते ही सबसे पहले वो दही में बाजरे की रोटी के साथ नाश्ता करना और फिर घंटों ट्यूबवेल के पानी में खेलना। बचपन और गाँव दोनों अपने आप में ही ख़ूबसूरत और साथ मिल जाएं तो यूं समझिये दुनिया में उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत और कुछ भी नहीं।
जाने क्यूं आज दिल यादों की उन ख़ूबसूरत सी गलियों में फिर भटक रहा है। आज जब कुछ भी पहले सा नहीं है। कुछ भी पहले सा नहीं हो सकता…जी कर रहा है एक बार फिर उस बचपन में, उस गांव में लौट जाएं। मिट्टी के चूल्हे में पकी वो सौंधी सी रोटी जो धुएं की महक को आत्मसात कर के कुछ और सौंधी और मीठी हो जाया करती थी। वो हँसी ठिठोली। वो मंदिर, वो फूलों से भरा खेत, वो गुलमोहर, वो नीम, वो नीम की डाली पर पड़ा लकड़ी के तख्ते वाला झूला…उस पर बैठे हम सब भाई बहन पींग बढ़ाते हुए, शोर मचाते हुए “और तेज़… और तेज़… और तेज़…”।
तरक्क़ी, सुख-सुविधाएं, ऐश-ओ-आराम, आगे बढ़ना…किसे पसंद नहीं होता पर इस सब के बदले जो क़ीमत चुकानी पढ़ती है…अपने गांव से, अपने घर से, अपने अपनों से बिछड़ने की…। उस टीस को इस ग़ज़ल में बख़ूबी महसूस किया जा सकता है “वक़्त का ये परिंदा रुका है कहाँ…”
-राम विश्नोई
(लेखक राम विश्नोई जोधपुर, राजस्थान के रहने वाले हैं और वर्तमान में जवाहरलाल विश्वविद्यालय (जेएनयू) में छात्र हैं)
बच्चपन का शानदार व्याख्यान किया है।आजकल तो इतना भी समय नही की बचपन को याद कर सके।
मुझे याद है जब में 6किलोमीटर दूर स्कूल से आता था तो उस समय दादी चूरमे का लाडू बनाकर के गुड़ डालकर के रखती थी और उसके खाने में क्या आनंद मिलता था वो आजकल गायब है।
स्कूल जाते समय चौमासे के मौसम में क़ाकीडा कटे वाले बेग में लेकर जाते थे ओर स्कूल के बाहर आंकड़ो में या जमीन में छुपा देते थे और उसका रेसिट में खाने का मजा या फिर दूसरे का चुराकर खाने का मजा कुछ अलग ही था।आजकल कुछ नही है वैसा।
बहुत शानदार आपने तो हमें वापस बचपन की यादों में गुम सा कर दिया
जमीनी एहसास
बहुत ही सुंदर लेखनी