मृत्यु…
क्या यही अंतिम पड़ाव है
पीड़ा का
क्या यही होती है वो
अंतिम…चरणीय पीड़ा
जहाँ जीवन का अस्तित्व
शून्य में हो जाता है
विलीन
जिसके बारे में कहा
सुना गया है कई ग्रन्थों, किताबों और
गुरुओं से भी
मोक्षदायिनी…मृत्यु
सूखे, बंजर
पड़े खेत में अभी-अभी
दिखाई दिए
एक पशु कंकाल
और उसपर इर्द गिर्द घेरे
कुत्तों के झुंड के बीच
अपनी असहाय स्थिति
के भावी रूप से
आशंकित कृषक की
पीड़ा से भी
शायद कहीं अधिक!
या दुधमुँहे बच्चे को
कई दिनों से अपने
भूखे कुपोषित निर्जीव
हो चुके शरीर से
तृप्त न कर
पाने की लाचारी से…!
दिन भर की
थकन से
जूझते ..रिक्शा खींचते
दो हाथों की नसों के खिंचाव
पैरों की एड़ियों पर उभर
आए गहरे दर्द भरे कटाव…
जिन्हें बेटी की विदाई के
समय तक छुपाए
रखना है…
जैसी पीड़ा से भी अधिक
हो सकती है क्या
मृत्यु की पीड़ा!
-पूजा कश्यप
(पूजा कश्यप दिल्ली में एक्सिस बैंक में कार्यरत हैं औऱ कविताएं लिखने का शौक रखती हैं)
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