मैं कभी उत्तर तो कभी पूर्व हो चला
ऐसा जीवन बनाया कि खानाबदोश हो चला
पहाड़ों पर रात बिताई कितनी
बंजर खेतों में कई बार पसर गया
मैं सफ़र का था सफ़र में ही रह गया
बैलगाड़ी की सवारी की
साइकिल भी रातों में चला गया
कई किलोमीटर पैदल में ये जहां नाप गया
कभी हाथ तो कभी पैर में छाला आ गया
मैं सफ़र का था सफ़र में ही रह गया
कई नदियों का पानी इस शरीर को डुबा गया
कई जंगल में कठिनाइयों से कैसे जीते हैं
ये सबक सिखा गया
कभी फल तो कभी मांस खाता गया
मैं सफ़र का था सफ़र में ही रह गया
हजारों मन्दिर और मस्जिदों में घूम गया
समय अलग था दोनों के भक्तों का
पर दोनों में एक जैसा इंसान नज़र आ गया
मैं सफ़र का था सफ़र में ही रह गया
ज़िन्दगी में मानो बहूत कुछ कर न पाया
पूरे जहां को एक जीवन में समझ न पाया
सफ़र में ही मर गया
मैं सफ़र का था सफ़र में ही रह गया
(रचनाकार नीरज सिंह राम लाल आनंद कॉलेज में पत्रकारिता के छात्र हैं)
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