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लहू की दीवार के चश्मदीद सूबेदार मेजर अमरनाथ शर्मा के साथ गुफ़्तगू जो विभाजन के समय पाकिस्तान से आए थे

जब 10 लाख से अधिक लोग बेघर हो गए थे। PHOTO: MARGARET BOURKE-WHITE

-सुकृति गुप्ता

दीवारों पर सीलन हैं

दरारे हैं

चीखती चिल्लाती

दर्द से कराहती

कुछ दरारें

दीवारों के अंदर भी हैं….

कमलेश्वर अपनी कहानी ‘आज़ादी मुबारक’ में मंटो के साथ आज़ादी का जश्न मनाते हैं। जश्न क्या मनाते हैं खंडहरों की सैर करते हैं। उस सभ्यता का भ्रमण करते हैं “जिसने लहू की दीवारें और आंसुओं की नदियाँ ईजाद की थीं।”

उस कहानी में वे एक बच्चे से मिलते हैं जिसने पांच बरस की उम्र में लहू की दीवार को बनते देखा था। यह बच्चा अब पचपन बरस का हो चुका है इसलिए मंटो और कमलेश्वर उसे पचपनसाला कहते हैं।

हम भी एक ऐसे बच्चे से मिले जिसने लहू की दीवार को बनते देखा था। जब ये दीवारें बन रही थीं तो उस वक्त वह 17-18 बरस का रहा होगा। आज ये बच्चा 89 बरस का हो चुका है। बूढ़ा होने पर आदमी बूढ़ा होने से ज़्यादा बच्चा हो जाता है।

खैर, मुद्दे पर आते हैं। मंटो ने कमलेश्वर से कहा था, “सदियाँ बूढ़ी हो जाती हैं पर दर्द कभी बूढ़ा नहीं होता।” वाकई कुछ दर्द ऐसे होते हैं जिनकी जवानी कभी ढलती नहीं है। वे जवान रहते हैं और उन्हें जवान करने का काम हम और आप में से ही कुछ लोग करते हैं।

हमने उस बूढ़े बच्चे से कभी बूढ़े न होने वाले दर्द के बारे में पूछा। उनसे पूछना आसान नहीं था क्योंकि उनसे मिलना आसान नहीं था। उनके बारे में सुना ज़रूर था पर कभी मिले नहीं थे। पहली बार जब मिलने गए तो रात के करीब 9:30 बज रहे थे। मुझे पता था कि वे रात को देर से सोते हैं इसलिए देर रात तकलीफ़ दे दी। बेल बजाई। उनके बेटे ने दरवाज़ा खोला। क्या काम है? पूछने पर, मैंने उनकी पोती का नाम ले लिया। कहा उनके दादा जी से बात करनी है। वो बोले,“बहुत ज़्यादा उम्र हो गई है उनकी। ठीक से बोल नहीं पाते। सुनाई भी ठीक से नहीं देता। जोर-जोर से बोलना पड़ता है। कोई फायदा नहीं है! कुछ समझ नहीं आएगा! उनकी पोती ने कहा सुबह आ जाइए। आपकी बात करा दूंगी।”

बात करनी थी और यह बात भी पता थी कि दादाजी अपनी दुकान पर मिल सकते हैं। इसलिए उसी गली में रहने वाली अपनी सहेली से संपर्क किया और उनकी दुकान पर पहुंच गए।

उनकी छोटी सी किराने की दुकान थी। इतनी छोटी कि दुकान के अंदर बैठने की जगह नहीं थी। ऊपर से उस छोटी सी दुकान में पुराने जमाने वाला बड़ा सा कूलर रख दिया गया था। एक कुर्सी थी, दुकान के ठीक बाहर रखी। उस पर वे बैठे हुए थे। दूसरी कुर्सी थी नहीं, इसलिए हम ज़मीन पर ही बैठ गए। हमने कहा कि आपसे बात करनी है। वो बोले,“मैं मिलिट्री का आदमी हूँ। उसके अंदर की जानकारी नहीं दे सकता।” हमने कहा,“अंदर की बात नहीं पूछ रहे। एक आदमी को अपना घर क्यों छोड़ना पड़ता है, उसके बारे में पूछ रहे हैं।” फिर वे बात करने को राज़ी हुए। बोले,“पूछो…”

हमने पूछना शुरू किया। दाँत टूट चुके थे इसलिए जो बोलते हैं स्पष्ट समझ नहीं आता। उन्हें ठीक से सुनाई नहीं देता इसलिए जोर-जोर से बोलना पड़ता है। लोहे वाले कूलर की आवाज़ और गाड़ियों की आवाजाही ने इस जोर में और इजाफा कर दिया था। सो हम जोर-जोर से बोलते हैं और उनकी धीमी और अस्पष्ट आवाज़ को कान लगाकर सुनते हैं।

सूबेदार मेजर अमरनाथ शर्मा की छोटी सी दुकान

मैंने पूछा, “पाकिस्तान से भारत किन हालातों में आए?”

बोले, “कांवड़े के साथ आए थे… मैंने फिर पूछा, “कांवड़ा मतलब?” फिर कुछ सोचकर बोले, सरकारी गाड़ी में भरकर हिंदुओं को भारत भेजा जा रहा था…उनका पूरा परिवार भी उसी पर चढ़कर आ गया। लोगों को भेजा जा रहा था। मुसलमानों को पाकिस्तान और हिंदुओं को हिंदुस्तान।”

ये सुनकर मुझे मंटो की कहानी टोबा टेक सिंह का वो अंश याद आ जाता है जब मंटो कहते हैं कि पागलखाने को छोड़कर बाहर की दुनिया पूरी तरह पागल हुए जा रही है। सरकार इतनी पागल हो चुकी है कि पागलों की भी अदला-बदली कर रही है।

मैंने पूछा,“कब आए थे?”

बोले ‘ठीक से याद नहीं…’

फिर पूछा, “अच्छा ये बताइए आज़ादी के बाद या पहले?”

“अगस्त का महीना था, दिन याद नहीं, पर आज़ादी के बाद आए थे, 1947 में ही…।”

फिर पूछा, “आप आना चाहते थे?”

बोले, “नहीं…दो-तीन घर थे वहाँ हमारे। यहां आए तो कुछ नहीं था। सब छोड़-छाड़ कर आए थे।”

हालात ही ऐसे थे। “पड़ोसियों ने कहा हालात ठीक नहीं है, जितनी जल्दी हो सके निकल जाओ। एक हिंदू को मारने पर एक लाख के ईनाम का ऐलान किया गया था। हिंदुओं को मारने पर ईनाम दिए जा रहे थे।”

“जब भारत आए तो कैसे ज़िंदगी काटी?”

इस पर वे खुद ही पूरी कहानी बताने लगे। बोले, जब यहां आए तो पूरा परिवार बिखर गया। सब भाई अलग-अलग हो गए। पहले हमजिंद (हरियाणा) में रहा करते थे। भाई लोग बाद में लाडवा (हरियाणा का हिसार जिला) चले गए। काम के सिलसिले में सब अलग हो गए थे। “अब ज़्यादातर भाई-बहन मर चुके हैं।”

फिर अपने बारे में बताने लगें। बोले, “मजदूरी किया करते थे। गन्ने बेचा करते थे। लंगर में जो खाना मिलता था, वो खाया करते थे… बहुत सारे काम किए…”

वीएन दत्ता अपने लेख पंजाबी रिफ्यूजी एंड दि अर्बन डेवलेप्मेंट ऑफ  ग्रेटर दिल्ली (Panjabi Refugees and the Urban Development Greater Delhi) में बताते हैं कि जो गैर-मुस्लिम शरणार्थी यहां (दिल्ली) आए, उनको यहां के पेशे का ज्ञान नहीं था। ये ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग थे। ये वकील, शिक्षक, व्यापारी  आदि थे। जबकि दिल्ली में रहने वाले ज़्यादातर मुस्लिम शिल्पकार व मज़दूर थे। नए शरणार्थियों ने कई तरह के काम किए। उन्होंने फेरीवाले, विक्रेता, मेकेनिक, व्यापारी और छोटे दुकानदारों का काम किया।

मेरे यह पूछने पर कि “पाकिस्तान में दो-तीन घर थे। यहां नहीं था। फिर घर कैसे मिला? सरकार ने दिया ?”

बोले,“सरकार ने एरिया तय कर दिए थे। घर नहीं दिए थे। बहुत सारे घर खाली थे। सब कब्जा कर रहे थे, हमें भी तीन कमरों का एक मकान मिल गया।” मतलब उन्होंने कब्जा करके तीन कमरों का मकान हासिल कर लिया था। वीएन दत्ता अपने लेख में एक जगह उल्लेख करते हैं कि मुस्लिम 1,02,000 मकान छोड़कर गए थे। इनमें से महज 2,593 मकान ही औपचारिक तौर पर बांटे गए थे, बाकि मकानों पर कब्जा किया गया था।

मेरे बिना पूछे ही अब ज़िंदगी कैसे काटी वाली कहानी को वह और विस्तार से बताने लगें।

बोले, “पार्लियामेंट में पहले मजदूरी किया करता था। फिर वहाँ क्लर्क की जगह खाली हो गई। पढ़ा-लिखा था इसलिए क्लर्क का काम दे दिया। एक महीने बाद नौकरी से निकाल दिया। उसी दौरान पता चला कि लाल किले में जवानों की भर्ती हो रही है। मैं भी चला गया। लड़कों के सीने नापे जा रहे थे। वजन और कद नापा जा रहा था। दौड़ कराई जा रही थी। 50-60 लड़कों में से 3 लड़कों को चुना गया। मैं भी उनमें से एक था। फिर पूना में हमें ट्रेनिंग दी गई। इस तरह मैं सेना में भर्ती हो गया।”

“कौन सा सन् था और आप कितने बरस के थे?”

“19 बरस का था। 19 जनवरी, 1949 का दिन था।”

बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि 28 साल सेना में काम किया। 19 जनवरी, 1978 को सेवानिवृत्त हुए। वह बताते हैं कि चीन और पाकिस्तान के विरुद्ध भी लड़ाईयां लड़ी हैं। पर जब उनसे पूछते हैं कि कौन-कौन सी लड़ाइयों में लड़े तो कड़क हो जाते हैं। कमांडो जैसा बर्ताव करने लगते हैं। बोलते हैं, “मैं आर्मी का आदमी हूँ, अंदर की बात नहीं बता सकता। इसके बारे में मत पूछो। लड़ाई वाली बात नहीं बताऊंगा।”

इस पर मैनें रुककर उनसे पूछा, “क्या आम लोग विभाजन चाहते थे? क्या वाकई उनमें इतनी नफ़रत थी?”

वे थोड़ा भावुक हो जाते हैं। बोले, “कोई क्यों अपना घर छोड़कर जाना चाहेगा। आम लोग कभी ऐसा नहीं चाहते थे। ये सब जिन्ना-नेहरू ने किया। सरकार ने आदेश दिया चले जाओ। सरकार के आदेश पर नफ़रत फैलाई जा रही थी।”

इसके बाद वह और भी बहुत कुछ कहते हैं जो मैं समझ नहीं पाती। भावुकता ने उनकी आवाज़ और ज़्यादा अस्पष्ट कर दी थी। हां, कश्मीर का नाम लेकर जंग की बात करते हैं। दोनों सरकारों को नाकामयाब बताते हैं। कहते हैं, “कश्मीर का मुद्दा तो सुलझा नहीं पाई सरकार।”

फिर मैंने पूछा, “कोई था जिसने मदद की हो आपकी?”

बोले, “आम लोग बड़ी मुहब्बत से रहते थे। कोई लड़ाई झगड़ा नहीं था। सब सरकार ने करवाया। हमारे एक मुस्लिम दोस्त थे। आना जाना होता था उनका। जब पाकिस्तान से आ रहे थे, तो घर तो नहीं दे सकते थे पर अपनी गाय-भैंस और कई सामान उनको दे आए थे। उन सामानों से जो पैसे जमा हुए थे भारत आकर हमें दे गए थे।” उन्होंने बताया उनसे 1948 में परमिट के ज़रिए भारत मिलने आए थे ।

उन्होंने मुहब्बत की बात छेड़ी थी, इसलिए थोड़ा हंसकर हमने पूछ लिया, “आपका ब्याह कब हुआ? पाकिस्तान में हुआ था या भारत आकर हुआ?”

ब्याह वाली बात पर वो शर्माते नहीं हैं। बड़ी सहजता से बोले, “भारत में ही हुआ था, 1950 में।”

हम बेशर्मी से पूछ लेते हैं कि लव थी या अरेंज्ड? आपकी पत्नी भारत की थीं या वो भी पाकिस्तान से आई थीं?

वे बड़े अनरोमेंटिक तरीके से जवाब देते हैं, “नहीं, नहीं लव नहीं थी। हमारे यहां ऐसा नहीं होता। पर, मेरी वाइफ भी पाकिस्तान से ही आई थीं।”

मैं उनसे आखिरी प्रश्न करती हूँ, “आपके दोस्त मिलने आए थे, आप कभी नहीं गए, घर देखने या दोस्तों से मिलने?”

बोले, “सेना में भर्ती हो गए थे। वक्त नहीं मिला। और फिर अब किसलिए जाएं! क्या मिलेगा वहां?”

मैंने सोचा, लहू की दीवारें मिलेंगी! या फिर शायद वो भी न बचा हो!

जाते-जाते मैंने कहा कि आपसे और ज़्यादा व्यवस्थित तौर पर बात करनी थी। उस तरीके से नहीं कर पाए। कभी फिर से परेशान करेंगे। इस पर वे हंस देते हैं। बोलते हैं, “ठीक है।”

हमने जिनसे गुफ़्तगू की वे सूबेदार मेजर अमरनाथ शर्मा थे। पाकिस्तान के गुजरनवाला (Gujranwala) से आए थे। वही गुजरनवाला जहां शेर-ए-पंजाब (महाराजा रणजीत सिंह) का जन्म हुआ था। फ़िलहाल, दिल्ली में ही रह रहे हैं।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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