-चारागर
मज़हब की टोकरी हाथ में लिये
देखो सियासत
लोलीपॉप बाँट रही है,
हरे और भगवा रंग की
फिरकी में उलझ-उलझ
देखो जनता
गोल-गोल चक्कर काट रही है
नेताजी हर बार आते हैं
वही सड़े गले वादों वाला थाल हाथ में लिए
और लगा घर-घर फिर देखो फेरी
नयों की आड़ में पुराने बेच जाते हैं,
ख़ुद तो ऊपर से नीचे सफ़ेदपोश बने रहते हैं
तुम्हें हरा या भगवा बना जाते हैं
हर बार वो क़समें खाते हैं मुद्दों पे चुनाव लड़ने की
हम क़समें खाते हैं ईमान और ज़मीर से वोट डालने की,
पर ज्यों-ज्यों चुनाव नज़दीक आते हैं
मुद्दे, मुद्दे इस नाम का तो कोई जन्तु नज़र ही नहीं आता,
आता है तो राम-रहीम ,अगड़े-पिछड़े,
या फिर ख़ून ख़राबा और लड़ाई झगड़े,
और इस लड़ाई झगड़ों में
दोस्त, भाई, पड़ोसी सब खो जाते हैं
और हम फिर से रह जाते हैं
सिर्फ़ हिंदू या मुसलमान
और इस तरह से सियासत एक बार फिर जीत जाती है
और इंसानियत एक बार फिर से हार जाती है
(डॉक्टर संजय यादव “चारागर” पेशे से चिकित्सक हैं और लिखने का भी काफी शौक रखते हैं)
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