न कोई साथ था, न कोई पास था
मैंने फिर भी एक अकेली बच्ची को हंसते देखा।
न जाने कौन सी मजबूरी थी जो उसे छोड़ दिया
उस नादान को इस बेगैरत दुनिया में अकेला कर दिया,
नन्हीं सी उसकी मुस्कराहट को आसुंओं में उलझा दिया,
उस नासमझ को दुनिया से अकेले लड़ने के लिए छोड़ दिया।
कितने अरमानों का क़त्ल किया होगा
जब उस माँ ने अपने जी को पक्का किया होगा,
कितने अश्को को गले से लगाया होगा,
जब माँ ने उसकी जान को सड़क पर सुलाया होगा।
उस नन्हीं जान को न जाने कौन सहारा देगा,
न जाने कितने दिनों से उसने अन्न का दाना न देखा होगा,
आखिर क्या गलती थी, उस लाचार की,
जो उसे सजा दी गयी अनाथ होने की।
नन्हें हाथों को जोड़े प्यारी सी मुस्कान थी तब भी,
अकेले हो कर भी लाखों से लड़ने की जान थी तब भी,
न कोई साथ था न कोई पास था
मैंने फिर भी एक अकेली बच्ची को हँसते देखा।
-रचनाकार दिवेश अग्रवाल हैं जो जाने माने पत्रकार और लेखक भी हैं।
मेलः dev2aggarwal@gmail.com
Amazing.?
Nice written brother keep it up ??????