कविताः खुद के लिए जीना तो क्या जीना
खुद के लिए जीना तो क्या जीना जमाने को रोशनी देना चाहे खुद को राख कर देना जरूरत से कुछ ज्यादा ही पाया है पाकर भी बहुत कुछ रास न आया है हर एक…
खुद के लिए जीना तो क्या जीना जमाने को रोशनी देना चाहे खुद को राख कर देना जरूरत से कुछ ज्यादा ही पाया है पाकर भी बहुत कुछ रास न आया है हर एक…
न कोई साथ था, न कोई पास था मैंने फिर भी एक अकेली बच्ची को हंसते देखा। न जाने कौन सी मजबूरी थी जो उसे छोड़ दिया उस नादान को इस बेगैरत दुनिया में…