खुद के लिए जीना तो क्या जीना
जमाने को रोशनी देना
चाहे खुद को राख कर देना
जरूरत से कुछ ज्यादा ही पाया है
पाकर भी बहुत कुछ रास न आया है
हर एक कीमती चीज को कहते ही पाया है
लेकिन पाकर भी दिल में कुछ अधूरा सा रहा है
खुद के लिए जीना तो क्या जीना
जमाने को रोशनी देना
चाहे खुद को राख कर देना
हद से ज्यादा गर्व है इस पराई दौलत का
कभी एक पैसा भी न कमाया अपनी मेहनत का
झूठी शान के सिवा कुछ न मिल पाएगा
तू कभी पैसों से किसी की दुआ न खरीद पाएगा
जाते-जाते इंसानियत की दौलत कमाना भूल जाएगा
किसी रोज दिलेर बनकर लाचार की मदद जरूर करना
सब कुछ दान कर अपनी भूख की फिक्र न करना
किसी इज्तिरार के लिए कभी पत्थर दिल न बनना
आशना बन उसका साथ जरूर निभाना
किसी की दुआ शायद तेरी किस्मत बदल दें
लेकिन कभी हैसियत देखकर रिश्तों का सौदा न करना
खुद के लिए जीना तो क्या जीना
जमाने को रोशनी देना
चाहे खुद को राख कर देना
(रचनाकार देवेश अग्रवाल हैं जो जाने माने पत्रकार और लेखक भी हैं)
Awesome poem and truely relatable thoughts..