सर पर छत है ,
पर पानी टपकता है।
खुशियों का अंबार है ,
पर आदमी फफकता है।
चारों तरफ नीतिज्ञ हैं,
पर वह बहकता है।
बेईमानी से भरा है,
पर वो महकता है।
सदमें भी सहा है,
पर दूसरों पर चहकता है।
कमियां भरपूर हैं,
पर दूसरों की पकड़ता है।
आदमी फितरती है,
पर सबको मशकता है।
इतना सब कुछ साथ है,
पर स्व को न पकड़ता है।
सत्य वचन, सार्थक सृजन गुरुवर ??