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कविताः गुलाब को काँटों के बीच खिलकर महकना तो है ही

सांकेतिक तस्वीर, गूगल साभार

-प्रभात

अन्धकार है अभी तो प्रकाश एक दिन मिलेगा ही
रात में जूगनू और तारों के बाद सूरज खिलेगा ही
हैं पुष्प जो खूबसूरत, काँटों से दबे चीखते ही हैं
कुछ कीचड़ के आगोश में कई सुमन पनपते हैं ही

कोई बीज नहीं जो यातनाओं को निरंतर सहन कर ले
आंधी, बारिश, धूप में फटकर एक दिन जमेंगे ही

कोई पहाड़ है तो उसे खाई से लड़ना आएगा ही
किसी बिगड़े हुए को कोई अच्छा तो भाएगा ही

सरोवर की पहचान है न बहना तो उसे गम क्यों हो
गम है तो नदियों को भी जो रोकर समंदर में मिलती हैं
किसी जगह पर मिलना तो कहीं पर बिछड़ना है ही
पर्वत से निकलकर अकेले झरने को बहना तो है ही

किसी बीज को वृक्ष बनने का वक्त आएगा ही
पतझड़ के बाद कोपलों का निकलना तो भाएगा ही
साहस समंदर का रीफ बनकर काई दफन कर लेती हैं
पत्थरों के जख्म से ताजमहल में इबादत होती है

इस अटूट विश्वास के साथ चलना जरूरी भी तो है
गुलाब को काँटों के बीच खिलकर महकना तो है ही

(यह रचना प्रभात के ब्लॉग से ली गई है)

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

1 Comment on "कविताः गुलाब को काँटों के बीच खिलकर महकना तो है ही"

  1. Sukriti Gupta | June 25, 2018 at 10:01 PM | Reply

    उम्दा…??

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