सरकार द्वारा शिक्षकों पर सिविल सर्विस कानून थोंपने का शिक्षक संघ ने किया विरोध
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की ओर से सरकार की ओर से देशभर के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के शिक्षकों पर एक नया नियम थोपा जा रहा है। यह नियम ”सिविल सर्विस कानून” के रूप में सरकारी अनुदान प्राप्त केंद्रीय विश्वविद्यालयों पर लागू करने से स्वतंत्र रूप से किसी विचार के बारे में सोचने और अपने निजी विचारों को महत्त्व देने पर प्रतिबंध लग जाएगा। “ऑल इंडिया यूनिवर्सिटीज एंड कॉलेजिज एससी, एसटी, ओबीसी टीचर्स एसोसिएशन (शिक्षक संघ)” ने सरकार द्वारा शिक्षकों पर सिविल सर्विस कानून थोंपने की कड़े शब्दों में आलोचना की है और इसे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर सरकार का सीधा हमला बताया है।
केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर सीधा हमला हैः सुमन
शिक्षक संघ के नेशनल चेयरमैन व दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) की विद्वत परिषद के सदस्य प्रो. हंसराज “सुमन” ने कहा है कि यूजीसी के इस निर्णय की कड़े शब्दों में आलोचना करता हूँ इससे उच्च शिक्षा के संस्थानों में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ेगा और विश्वविद्यालयों/कॉलेजों की स्वायत्तता समाप्त हो जाएगी। उनका कहना है कि वर्तमान में यूजीसी का केंद्रीय विश्वविद्यालयों/कॉलेजों में किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं है। लेकिन अब शिक्षक यदि सरकार की नीतियों की निंदा करता है, चाहे सरकारी नीति गलत ही हो उसको ऐसा करने पर निलंबित कर दिया जाएगा।
काला कानून वापिस लेने की सरकार से मांग
प्रो. सुमन ने बताया है कि हाल ही में यूजीसी द्वारा सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों को सेंट्रल सिविल सर्विस (कंडक्ट) रूल्स 1964 भेजा है। इस नियम को कुछ विश्वविद्यालयों को पत्र भेजकर इसे लागू करने का आदेश भी दे दिया गया है। उनका कहना है कि ऐसा कानून ब्रिटिश राज से कम नहीं है जहां किसी को भी सरकार के खिलाफ बोलने पर सजा हो जाती थी, यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हमारे संवैधानिक अधिकारों के विरुद्ध है। इस तरह के कानून को तुरंत बिना किसी विलंब के वापस ले लिया जाना चाहिए।
प्रो. सुमन ने कहा है कि शिक्षक संघ का मानना है कि सरकार सेंट्रल सिविल सर्विस (कन्डक्ट) नियमों को लागू करके विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक विभागों को सरकारी दफ्तरों में तब्दील करके अपने राजनीतिक एजेंडे को चलाना चाहती है। विश्वविद्यालयों को भेजे गये पत्र का आशय फंडेड सरकारी संस्थानों पर सुधार के नाम पर उनकी स्वतंत्रता खत्म करके उनका कमर्शियलाइजेशन करके उन्हें निजी संस्थानों में बदल देने की साजिश करना है और संस्थानों के सभी स्वतंत्र कार्यवाहियों को प्रतिबंधित करना है।
उनका कहना है कि शिक्षकों की स्वतंत्रता देश हित में अत्यावश्यक है, शिक्षक एवं उनके द्वारा किये जाने वाले कार्य जैसे कि शोध एवं अध्यापन यदि स्वतंत्र रूप से नहीं संचालित किए जाएंगे और उनको सरकारी दबाव के अंतर्गत कार्य करना पड़ेगा तो धीरे-धीरे इस देश की सारी शोध संरचना तथा शोध संस्थान बाजार के हाथों में चले जाएंगे और उनका निजीकरण हो जाएगा जो कि अत्यंत गम्भीर संकट की सूचना देने वाला है। इस स्थिति में कोई भी शिक्षक या संस्थान राष्ट्र की प्रगति में योगदान नहीं दे पाएगा, यह नियम अवैध तथा असंवैधानिक भी है।
प्रो. सुमन ने कहा कि सरकार के इस एजेंडे की कड़े शब्दों में मैं भर्त्सना करता है और इस तरह के कानून को सरकार को तुरंत बिना किसी विलंब के वापिस ले लिया जाना चाहिए। उनका मानना है कि सरकार की आलोचना उसकी नीतियों में आगे सुधार ही लाता है, आलोचना कोई बुरी बात नहीं है। प्रत्येक विचार यदि सरकार और शासक के पक्ष में हो तो वह निरंकुश और तानाशाही हो जाता है।
उनका कहना है कि सिविल सर्विस कानून विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की स्वायत्तता पर सीधा हमला है। यह कानून शिक्षकों की आजादी को छीनने वाला है। जब शिक्षक ही कक्षा में स्वतंत्र नहीं हैं तो छात्रों को क्या पढ़ाएंगे। यह कानून आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के लिए घातक साबित होगा। आज हम अंग्रेजी राज में नहीं है जहां प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा दिए जाते थे और न ही स्टालिन तथा चीन के माओ जैसे तानाशाहों के युग में जी रहे हैं। प्रत्येक नागरिक स्वतंत्र है और शिक्षक इस लोकतंत्र का दिमाग है अतः मस्तिष्क पर ही प्रतिबंध लागू कर देना किसी भी नए विचार को अवरुद्ध कर देना है। ऐसे में राष्ट्र हित संभव नहीं।
उनका कहना है कि सरकार ने अपना एजेंडा वापिस नहीं लिया तो देशभर के शिक्षकों को इस व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होना पड़ेगा।
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