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कविताः जिंदगी सिगरेट का धुआं

credit: google, representational image

मुझे याद है

धुएं के छल्ले फूंक मार के तोड़ना तुम्हें अच्छा लगता था

 

लंबी होती राख झटकना

बुझी सिगरेट उंगलियों में दबा लंबे कश भरना

फिर खांसने का बहाना और देर तक हंसना

 

कितनी भोली लगती थी तुम

 

गर्मियों की दोपहर का ये सिलसिला

मेरी आदत बन चुका था उन दिनों

हाथों के फ्रेम बना जब तुम अलग-अलग एंगल से मेरा चेहरा देखती

तो मैं अपने आप को तुमसे अलग नहीं देख पाता था

 

फिर कई दिन तुम नहीं आयी

सुलगती यादों की आग मेरे जिस्म में बहने लगी

धुएं के हर कश के साथ मैं तुम्हें पीने लगा

 

सच कहूं तो सिगरेट की आदत इसलिए भी रास आने लगी थी

क्योंकि उसके धुएं में तुम्हारा अक्स झलकने लगा था

 

अचानक उस शाम

किसी खामोश बवंडर की तरह तुम मेरे कमरे मे आयी

हालांकि तन्हा रात के क़दमों की आहट के साथ तुम चली गयी हमेशा हमेशा के लिए

पर जाते जाते मेरे होठ से लगी सिगरेट

अपनी हाई हील की एड़ी से बुझाते हुए तुमने बस इतना कहा

“प्लीज़ … आज के बाद कभी सिगरेट मत पीना”

 

और मैं …. पागल

 

अब क्या कहूं

 

काश तुमने ये न कहा होता

कोइ तो बहाना छोड़ा होता मेरे जीने का

अब तो खाली उंगलियों के बीच अपनी उम्र पीता हूँ

ऐश ट्रे में जिंदगी की राख झाड़ता हूँ

 

लम्हों के “बट” तो अभी भी मिल जाएंगे …

कुछ बुझे बुझे … कुछ जलते हुए धुआं धुआं …

 

रचनाकार दिगम्बर नासवा जी स्वप्न मेरे नाम से ब्लॉग लिखते हैं। आपका ईमेल पता dnaswa@gmail.com है।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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