तपती दोपहरी में जो सुकून उस बरगद के पेड़ की छांव में मिलता है
ढूंढ़ने भर से पूरे ज़माने में वो फिर और कही कहां मिलता है
कितनी भी कमा लूं दौलत कितने भी ऊंचे पद पे आसीन हो जाऊं
अहसास अमीर होने का पिता के पैसों के सिवा फिर कहां मिलता है
पिता के कांधों पर जब भी खड़ा होता था, लगता जहां बहुत छोटा है
अहसास वो ऊंचाई का अब ज़मीन पे खड़े होने से कहां मिलता है
मेरी नाजायज़ जायज़ मांगो को हंस के पल भर में पूरा कर देते हैं
पिता से अमीर शख्स इस दुनिया में कहीं और कहां मिलता है
ऊंगली पकड़कर चलाना सिखाया, डांटकर मार्ग भटकने से भी बचाया
बाहर से सख़्त अंदर से वो कोमल हृदय पिता सा कहीं कहां मिलता है
(रचनाकार संजय यादव “चारागर” राजस्थान के रहने वाले हैं)
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