कविताः जले खतों को राख में फिर से उभरते देखा
-विवेक आनंद सिंह किसी सूरत को देखा किसी मूरत को देखा बदलते हर एक मौसम में किसी अपने को देखा खुमारी के आलम में, नशा चढ़ कर जो बोला है लगा के आग सीने…
-विवेक आनंद सिंह किसी सूरत को देखा किसी मूरत को देखा बदलते हर एक मौसम में किसी अपने को देखा खुमारी के आलम में, नशा चढ़ कर जो बोला है लगा के आग सीने…
खुद के लिए जीना तो क्या जीना जमाने को रोशनी देना चाहे खुद को राख कर देना जरूरत से कुछ ज्यादा ही पाया है पाकर भी बहुत कुछ रास न आया है हर एक…
-प्रभात अन्धकार है अभी तो प्रकाश एक दिन मिलेगा ही रात में जूगनू और तारों के बाद सूरज खिलेगा ही हैं पुष्प जो खूबसूरत, काँटों से दबे चीखते ही हैं कुछ कीचड़ के आगोश में कई…
मेरा मनोचिकित्सक भी आदमी है मेरे साथ मनोविज्ञान-मनोविज्ञान खेलता है मुझे मनोविज्ञान-मनोविज्ञान खेलना पसंद नहीं क्योंकि वो मुझसे झूठ बोलता कहता है- आदमियों को कोसा न करो शरीर में टेस्टोस्टेरोन बढ़ जाता है बेवकूफ़…