मुझे याद है
धुएं के छल्ले फूंक मार के तोड़ना तुम्हें अच्छा लगता था
लंबी होती राख झटकना
बुझी सिगरेट उंगलियों में दबा लंबे कश भरना
फिर खांसने का बहाना और देर तक हंसना
कितनी भोली लगती थी तुम
गर्मियों की दोपहर का ये सिलसिला
मेरी आदत बन चुका था उन दिनों
हाथों के फ्रेम बना जब तुम अलग-अलग एंगल से मेरा चेहरा देखती
तो मैं अपने आप को तुमसे अलग नहीं देख पाता था
फिर कई दिन तुम नहीं आयी
सुलगती यादों की आग मेरे जिस्म में बहने लगी
धुएं के हर कश के साथ मैं तुम्हें पीने लगा
सच कहूं तो सिगरेट की आदत इसलिए भी रास आने लगी थी
क्योंकि उसके धुएं में तुम्हारा अक्स झलकने लगा था
अचानक उस शाम
किसी खामोश बवंडर की तरह तुम मेरे कमरे मे आयी
हालांकि तन्हा रात के क़दमों की आहट के साथ तुम चली गयी हमेशा हमेशा के लिए
पर जाते जाते मेरे होठ से लगी सिगरेट
अपनी हाई हील की एड़ी से बुझाते हुए तुमने बस इतना कहा
“प्लीज़ … आज के बाद कभी सिगरेट मत पीना”
और मैं …. पागल
अब क्या कहूं
काश तुमने ये न कहा होता
कोइ तो बहाना छोड़ा होता मेरे जीने का
अब तो खाली उंगलियों के बीच अपनी उम्र पीता हूँ
ऐश ट्रे में जिंदगी की राख झाड़ता हूँ
लम्हों के “बट” तो अभी भी मिल जाएंगे …
कुछ बुझे बुझे … कुछ जलते हुए धुआं धुआं …
रचनाकार दिगम्बर नासवा जी स्वप्न मेरे नाम से ब्लॉग लिखते हैं। आपका ईमेल पता dnaswa@gmail.com है।
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