दिल्ली में हर बार की भांति पुस्तक मेला लगा, दिल्ली देश का दिल है, अवार्ड वापसी वाले लेखक बहुत परेशान हैं कि जितनी ख्याति उनको अवार्ड लौटाकर नहीं मिली थी उससे ज्यादा प्रचार-प्रसार तो इस मेले में लेखकों का हो रहा है। एक अनुमान के तौर पर सिक्किम की आबादी के जितनी पुस्तकों का विमोचन हो चुका है और केजरीवाल के मोदीजी पर अगणित आरोपों जितनी सेल्फियां फेसबुक पर पोस्ट हो चुकी हैं। पुस्तक मेले के गेट पर पास सिस्टम बन्द है। एक हरियाणवी की बतौर पुलिस ड्यूटी है जो मिजाज से शायर है। मिर्ज़ा ग़ालिब गेट से बिना टिकट घुस रहे थे तो उसने टिकट और आईडी माँगी,
गालिब बोले” वो पूछते हैं हमसे कि ग़ालिब कौन हैं
कोई बतलाएगा कि हम बतलायें क्या”?
पुलिस वाला उखड़ते हुए बोला
“ताऊ तुझे मैं फेंक दूँगा तरण ताल में
इब मुफ्त घुसेगा जो तू मेले के हाल में,
ग़ालिब खिसक लिये जाके मीर को उकसाया कि तुम्हारी किताब बिक रही है तुम मुफ्त में अंदर जाओ। मीर आये आते ही बोले
“मेहर की है तवक्को,अंदर मुफ्त जाएंगे हम
शर्मो हया कहाँ तक है मीर कोई दम”
पुलिस वाले ने समझाया
“दाढ़ी तुम्हारी रंगीन है चचा मगर लगते हो उम्रदराज
अंदर तभी जा सकोगे जब हो सीनियर सिटीजन का पास,”
मीर भी निराश हो गए तो उन्होंने जौक को बुलाया कि इनकी दिल्ली में बड़ी जान पहचान है, इनकी इंट्री हो गयी तो हम भी अंदर जा सकते हैं। जौक ने पहुँचकर मुस्कराते हुए कहा
“इश्क़ का जोके नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है
बेगम मेले में अंदर हैं, जाने दो मुझे काम है”
पुलिस वाले ने उनको उन्हीं की भाषा में जवाब दिया-
“बेगम बड़ी हैं तेज चली, तन्ने क्यों रफ्तार सुस्त है
खबिंद नहीं, खातून के साथ बच्चे की इंट्री मुफ्त है।”
बात नहीं बनी तब तक अकबर इलाहाबादी आ गये, उन्होंने कहा कि मैं अभी बात बनाता हूँ
“जुल्म का चिराग बुझेगा ए कमिश्नर तेरी आंधी से
मुझे मुफ्त अंदर जाने दे और बचा ले बर्बादी से
पुलिस वाला बोला
“कमिश्नर नहीं गेट पर रहता है हवलदार
चश्मे के बिना अंकल जी अंदर जाना है बेकार”
तब तक दुष्यंत कुमार आ गये उन्होंने भी यही बात की
“सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये
सबसे ज्यादा किताबें मेरी बिकती हैं
मुझे हर हाल में मुफ्त इंट्री मिलनी चाहिये।”
पुलिस वाला कुछ बोलता तब तक कविवर हरिवंशराय बच्चन आ गये
“मंदिर, मसजिद सब कुछ भूलो, सबसे अच्छी मधुशाला
पुस्तक मेले ने निकाला है, मेरे बेटे का अब दीवाला
हर कोई किताब पढ़ेगा तब कैसे करेगा विज्ञापन वो
साबुन, मंजन, तेल बिके ना,अमिताभ हुआ है मतवाला”
पुलिस वाला झल्ला कर बोला “अरे महान आत्माओं आप सब आत्मा हैं आपको टिकट की ज़रूरत नहीं है, टिकट जीवित मनुष्यों हेतु है। ये महान विभूतियां अंदर पहुंची तो वहाँ सबसे पहले बेग सुलेमानी मिल गये जो हज़्ज़ाम का अपना पुराना पेशा छोड़कर बीच में हकीमी करने लगे थे बाद में किताब भी बेचने लगे थे, वो लय में अपनी मार्केटिंग कर रहे थे
“लिख दी है मैंने किताब, बस खरीद लीजिये आप
बेची है सफेद मूसली मैंने, लेकर के तौल-नाप
चम्पी भी करूँगा और बनाऊंगा हजामत
डिस्काउंट भी मिलेगा बस खरीद लो ये किताब‘
लेकिन, किसी ने उनकी ना सुनी। थोड़ी देर पर चालीस किलो के एक व्यक्ति नजर आये, दिल्ली की सर्द हवाओं में बेचारे उड़ गए थे। प्रगति मैदान की कंटीली बाड़ में उलझ गए वरना बाहर ही हो जाते, लोग उन्हें पकड़कर लाये, उनके हाथ में कोई कागज़ था साथ में ढेर सारी नारीवादियों का झुण्ड।
पता लगा कि इस बात पर बहस हो रही है और उनसे ज्ञापन पर सहमति ली जा रही है कि इस वर्ष को शरीर का कौन सा अंग वर्ष घोषित किया जाये हिंदी साहित्य का। पता लगा कि ये फिटनेस फ्रीक लेखक महोदय कह रहे थे “मैं लंदन से किताब बेचने आया हूँ, ये सब घोषित करने नहीं”। और वो हवा से नहीं उड़े थे बल्कि नारीवादियों ने उनको दौड़ा लिया था ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के लिये और उड़े नहीं थे बल्कि दीवार फांद कर भाग जाना चाहते थे। पास जाकर देखा तो ये संदीप नैय्यर साहब थे जो मुझे देखकर कातर स्वर में गाने लगे
“बिकवा दो सब किताब मेरी, ए दोस्त, मेरे भाई
है सिद्ध इस समर में बिक्री से है खूब कमाई
है डार्क बहुत नाईट, किसी को कर दो प्रपोज
दो गर्लफ्रैंड मिलेगीं तुम्हे, खिल जाओगे ज्यों रोज”
मैंने उन्हें गले लगाकर कहा-
तुम पौंड वाले कृष्ण, मैं रुपये का सुदामा
बिक जाएगी किताब, पर करो ना या ड्रामा
खाया पिया करो थोड़ा मेवा और बादाम
मैं सड़कछाप आदमी, चलता हूँ राम-राम”
-दिलीप कुमार
(नोट- ये लेखक के निजी विचार हैं, इससे फोरम4 का सहमत होना जरूरी नहीं है)
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