SUBSCRIBE
FOLLOW US
  • YouTube
Loading

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना : जिसने अपनी कविता में आम आदमी से किया वादा निभाया

तस्वीरः गूगल साभार

हिंदी नई कविता के सबसे प्रखर किरदारों में से एक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के साथ एक एसा संयोग जुड़ा है जैसा शायद हिंदी के किसी साहित्यकार के साथ नहीं है. वह पैदा भी हिंदी पखवाड़े में हुए (सितंबर 15, 1927) और निधन भी हिंदी पखवाड़े में हुआ. (सितंबर 24, 1983)। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में एक साधारण परिवार में जन्मे सर्वेश्वर की शिक्षा बस्ती, बनारस और इलाहाबाद में हुई थी. कुछ समय तक स्कूलमास्टरी की और थोड़े समय तक क्लर्की दोनों ही जगहों पर जब मन नहीं लगा तो इस्तीफ़ा देकर दिल्ली आ गए जहां कुछ वर्ष उन्होंने आकाशवाणी में समाचार विभाग में काम किया. आगे चलकर ‘दिनमान’ के उप संपादक रहे और ‘पराग’ पत्रिका के संपादक। सर्वेश्वर अपने समय में अपने समकालीन लोगों के मध्य में सबसे साफ नज़रिए के आदमी थे. उनके भीतर न मुक्तिबोध जैसा मध्यवर्गीय ऊहापोह था न श्रीकांत वर्मा जैसा महसूस किया गया ‘बुखार’। उनके फंडे बड़े क्लीयर थे. वह जितना सृजन के महत्व से परिचित थे उतना ही उसकी सीमा से. मूल्यों और ध्येय की इस निर्द्वंदता ने उनके लेखन में जो अभूतपूर्व स्पष्टता और ईमानदारी पैदा की वह सर्वत्र उनकी कविताओं में दिखायी देती है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह अपनी प्रतिबद्धता को लेकर दुविधाग्रस्त थे. अपनी ‘साधारणता’ और सहज आत्मीयता के साथ वह घोषित रूप से आम आदमी के संग खड़े थे।
उन्होंने ‘कुआनो नदी’ की भूमिका में लिखा था कि कोई भी राजनीतिक दल आम आदमी के साथ नहीं है। सबने अपने मतलब से उसे छला है। वह अपनी लड़ाई में अकेला है। मैं उसके साथ किसी राजनीतिक दल के नेता की तरह नहीं हूं. न उनकी तरह उसका नाम लेता हूं। मैं भौतिक रूप से भी और संवेदना के स्तर पर भी उसकी यातना झेलता हूं अतः मेरी कविता उससे अलग नहीं हो सकती।’
आम आदमी से किया यह वायदा कवि ने अपने मरण तक निभाया और सृजन के हर आज़माए गए रूप-विधान में निभाया। एक संवेदनशील हृदय आख़िर यही तो कर सकता है कि वह ‘खूंटियों पर टंगे हुए लोगों’ को समझाए कि जब गोलियां चलती हैं तो सबसे पहले मारे जाने वाला आदमी वह होता है जो क़तार में सबसे पीछे का आदमी होता है।
इसी तरह खूंटियों पर टंगे लोग की यह पंक्तियां देखियए। यह वह आदमी था जो ‘जब सब बोलते थे/वह चुप रहता था/ जब सब चलते थे/ वह पीछे हो जाता था/ जब सब खाने पर टूटते थे वह अलग बैठा टूंगता रहता था-‘ लेकिन जब गोली चली, तब सबसे पहले वही मारा गया।
कभी-कभी समाज लेखकों, कवियों और कलाधर्मियों से कुछ ज़्यादा ही उम्मीदें कर लेता है, तो कभी-कभी इसके उलट सृजन करने वाला मन अपनी सीमाओं को स्वीकार न करके अपना ही आकलन करने में चूक जाता है। परिणामस्वरूप वह या तो मुक्तिबोधीय आत्म-धिक्कार की मनोवस्था में पहुंच जाता है या फिर व्यक्तित्व की अज्ञेयात्मक स्वायत्तता की खोज में लग जाता है। सर्वेश्वर इस फ्रंट पर बिलकुल स्पष्ट थे। ‘कुआनो नदी’ की भूमिका में उन्होंने लिखा- ‘मैं यह जानता हूं कि कविता से समाज नहीं बदला जा सकता। जिससे बदला जा सकता है वह क्षमता मुझमें नहीं है। फिर में क्या करूं? चुप रहूं? उसे ख़ुश करने का नाटक करूं, भड़ैती करूं? … सच तो यह है कि मैं कविता लिखकर केवल अपना होना प्रमाणित करता हूं। मैं यह मानता हूं कि हम जिस समाज में हैं, जिस दुनिया में हैं वहां हमें अपना होना प्रमाणित करना है।’
कुआनो नदी ‘ संग्रह में सर्वेश्वर की एक कविता ‘पथराव’ सृजन और परिवर्तन के अंतर्संबंधों पर बड़ी मार्के की कविता है। सृजन पीड़ित रखता है, इसलिए यह लाज़मी है कि ‘आग मेरी धमनियों में जलती है/ पर शब्दों में ढल नहीं पाती’। कवि एक चाकू मांगता है ताकि वह अपनी रगें काटकर दिखा सके कि कविता कहां है! उसे पता है कि ‘कविता नहीं है कोई नारा/ जिसे चुपचाप इस शहर की सड़कों पर लिखकर घोषित कर दूं/ कि क्रांति हो गयी। ’
फिर इस तनाव का क्लाइमैक्स क्या होगा? यह जानकर कि उससे या उसकी कविता से वह कुछ होना-जाना है नहीं; क्या वह निष्क्रिय और अकर्मण्य हो जाए? यथास्थितिवाद को मानकर क्या कछुआ कवच के सुरक्षा चक्र में शरण ले ली जाए? खीजने से बेहतर है कि जो जहां है अपने को प्रमाणित करे ! अपने अपने ध्येय-कर्म को ईमानदारी से किया जाए. अपने अस्तित्व को सार्थक किया जाए।
मैं जानता हूं कि पथराव से कुछ नहीं होगा
न कविता से ही
कुछ हो या न हो
हमें अपना होना प्रमाणित करना है’
15 सितम्बर सन् 1927 को उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले में जन्मे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना तीसरे सप्तक के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। वाराणसी तथा प्रयाग विश्वविद्यालय से शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत उन्होंने अध्यापन तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य किया। आकाशवाणी में सहायक निर्माता, दिनमान के उपसंपादक तथा पराग के संपादक रहे। साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ फिर भी ‘चरचे और चरखे’ स्तम्भ में दिनमान में छपे लेख ख़ासे लोकप्रिय रहे। सन 1983 में अपने कविता संग्रह ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। कविता के अतिरिक्त सक्सेना ने कहानी, नाटक और बाल साहित्य भी रचा।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

विकास पोरवाल
पत्रकार और लेखक

Be the first to comment on "सर्वेश्वर दयाल सक्सेना : जिसने अपनी कविता में आम आदमी से किया वादा निभाया"

Leave a comment

Your email address will not be published.


*