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प्रवासी साहित्य को लेकर विशेष बातचीत में भावना सक्सैना से जानिये, सूरीनाम में हिंदी की स्थिति कैसी है?

आज हम साहित्य जगत से भावना सक्सैना से रूबरू करा रहे हैं।

भावना सक्सैना ने सूरीनाम के हिंदुस्तानी समाज के बारे में लेखन किया है और सूरीनाम के भारतवंशी हिंदी लेखकों के साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन किया है। सूरीनाम पर दो पुस्तकों के अतिरिक्त एक कहानी संग्रह भी प्रकाशित है।

यहाँ प्रस्तुत है उनसे राजीव कुमार झा की बातचीत, लेकिन उससे पहले उनकी एक रचना भी पढ़ लीजिये-

दोषी कौन

थक गई हैं उँगलियाँ

भावना सक्सैना

मोबाइल से डिलीट करते

ज़हरभरी तस्वीरें

आग, कत्ल और

वहशियत की तदबीरें।

 

दिन गुज़रते-गुज़रते

तस्वीरें खौफ की

बढ़ती ही जाती हैं

हर नई तस्वीर पहली से

भयावह नज़र आती है।

 

हैरान हूँ खोजे जा रहे हैं

लाशों पर धर्म के निशां

उन बेआवाज़ तनों में तो

बस मौत की तड़प

सुनी जाती है!

 

खौफ से फैली आँखों के

पथरा जाने से पहले

टपके होंगे सपने लहू बनकर

कि वो जानती थीं उनके बाद

बिखर जाएगा सारा घर।

 

छोटे-छोटे कामों को निकले

भरोसा थे किसी के कल का

भेंट चढ़ गए वहशियत की…

इंतज़ार करती आँखों का दर्द

दरिंदों को पिघला नहीं पाता है।

 

दर्द चेहरे पर, सूखे आँसू

खो ज़िंदगी की पूँजी

राख में बीनती कुछ

उँगलियों को देख

लहू आँखों में उतर आता है।

 

कौन दोषी है ?

कहीं तुम भी तो नहीं

कि कुत्सित बातें सुन

बीज अविश्वास का

मन में तो पनप जाता है!

अपने बारे में खासकर अपनी पढाई-लिखाई और सेवा कार्यों के बारे में बताएं?

मेरी सम्पूर्ण प्रारंभिक शिक्षा अंग्रेज़ी माध्यम से हुई फिर मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातक व एमए अंग्रेज़ी किया। इसके बाद लगभग छः वर्ष तक अंग्रेजी अध्यापन किया। जब एमए अंग्रेजी कर रही थी तब त्रिनदाद व टोबैगो में पाँचवा विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित हुआ था। उससे सम्बंधित समाचार पढ़कर मन में विचार उठता था कि यदि मैं हिंदी का अध्ययन कर रही होती तो अपने देश और भाषा की सेवा बेहतर कर सकती। संयोग से एमए का परिणाम लेने विश्विद्यालय गयी तो अनुवाद पाठ्यक्रम सम्बन्धी सूचना देखी और वहीं निर्णय किया कि यह मेरे हिंदी सेवा करने का जरिया हो सकता है। उस रोज अनुवाद पाठ्यक्रम का फॉर्म लेकर ही घर लौटी। वह पाठ्यक्रम पूरा होते ही एसएससी की परीक्षा उत्तीर्ण कर भारत सरकार के केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो में तैनाती हो गई और अपनी मातृभाषा की सेवा करने का सपना पूरा हुआ। तत्पश्चात एमए हिंदी किया।

वर्ष 2008 में विदेश मंत्रालय में प्रतिनियुक्ति के परिणामस्वरूप सूरीनाम जाने के लिए चयन हुआ। वहां पहुंच कर हिंदी के एक अलग संसार से रूबरू हुई।

हिंदी में प्रवासी भारतीय लेखकों के द्वारा लिखे साहित्य का क्या महत्व है?

प्रवासी भारतीय लेखकों द्वारा रचित साहित्य के महत्व को समझने से पहले प्रवासी शब्द को और प्रवास की परिस्थितियों को समझना होगा।

भारत से, लोगों के बाहर जाने की प्रक्रिया सन् 1834 के करीब आरम्भ हुई जब अनेक भारतीयों को शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत मॉरीशस, सूरीनाम, फीजी, दक्षिण अफ्रीका स्थित ब्रिटिश व डच बागानों में काम करने के लिए ले जाया गया। प्रवास का वह दौर बहुत लंबा व कष्टकारी था। यह दौर तो 1917 में समाप्त हुआ लेकिन तब से आज तक प्रवास का सिलसिला जारी है। अलग-अलग समय पर अलग-अलग परिस्थितियों में प्रवास होता रहा है।

आज वस्तुतः प्रवासी भारतीयों की तीन श्रेणियाँ हैं, पहली शर्तबंदी प्रथा के तहत भारत से बाहर गए श्रमिकों की तीसरी और चौथी पीढ़ी के लोग जिनमें से अधिकांश उन देशों के नागरिक हैं किंतु फिर भी मन-प्राण से भारत से जुड़े हैं (उनका द्वंद्व अलग चर्चा का विषय है)। दूसरे वह जो 70 व 80 के दशक में रोज़गार के अवसर तलाशते विभिन्न देशों में पहुँचे और वहीं बस गए। तीसरे वह जो आज भी भारत की नागरिकता रखते हैं और अपने रोजगार संबंधी दायित्वों के वहन के लिए देश से बाहर रह रहे हैं। दूसरे व तीसरे सुशिक्षित वर्ग ने भौतिक उन्नति के लिए प्रवास किया और आज मुख्यतः जिस प्रवासी साहित्य का बाहुल्य है वह इसी श्रेणी के रचनाकारों का साहित्य है। पहली श्रेणी के प्रवासियों द्वारा रचित साहित्य जिसे गिरमिटिया साहित्य भी कहा गया है अकसर नजरंदाज किया जाता रहा। फिर भी पिछले कुछ वर्षों में इस साहित्य पर अध्ययन व शोध किए जाने लगे हैं।

किंतु यह समझना आवश्यक है कि इन तीनों वर्गों की परिस्थितियां अलग रहीं और यही कारण है कि इनकी अनुभूतियाँ भी अलग रहीं। यही अनुभूतियाँ इन प्रवासियों द्वारा रचित साहित्य में स्वर पाती हैं और उनके जीवन व उससे जुड़े सत्यों को उजागर करती हैं। कहीं प्रवास की पीड़ा दर्शाती हैं तो कहीं मातृभूमि की स्मृतियों को चित्रित करती हैं। इन प्रवासियों की अनुभूतियों, दुख-सुख, हर्ष-विषाद को समझने के लिए इस साहित्य का अध्ययन महत्वपूर्ण है।

प्रवासी साहित्य में आपकी रुचि कैसे उत्पन्न हुई?

वर्ष 2008 से 2012 तक मैं सूरीनाम में भारत के राजदूतावास में अताशे (हिंदी व संस्कृति) के पद पर नियुक्त रही। वहाँ के हिंदुस्तानी वंशजों को जानने समझने का अवसर मिला, भारत के प्रति उनके मनोभावों को समझा, उनके द्वारा रचित साहित्य को पढ़ा। मैंने पाया कि भारत का हिंदी जगत सूरीनाम के बहुत कम कवियों व लेखकों परिचित है। यहाँ उनका परिचय देने की दृष्टि से ही मैंने वहाँ के लेखकों व कवियों पर अध्ययन आरंभ किया।

सूरीनाम कहाँ है और वहाँ भारत से हिंदी भाषी लोग कब और कैसे पहुँचे ?

सूरीनाम दक्षिण अमरीका द्वीप के उत्तर-पूर्व में अटलांटिक महासागर का तटवर्ती एक छोटा, लेकिन बहुत सुंदर देश है।

आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व अनेक भारतीय श्रमिकों को  विदेशी एजेंटों द्वारा बहला फुसलाकर  शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत गन्ने के खेतों में काम करने के लिए वहाँ ले जाया गया। सूरीनाम के लिए पहला जहाज, लालारुख,  कलकत्ता ङिपो से 26 फरवरी 1873 को रवाना हुआ और अनेक कठिनाइयों, खराब मौसम आदि का सामना करते हुए तीन माह एक सप्ताह बाद 5 जून 1873 को पारामारिबो पहुँचा और भारतीयों के कदम सूरीनाम की धरती पर पड़े। कालांतर में 64 जहाजों द्वारा 34304 भारतीय श्रमिकों को सूरीनाम ले जाया गया। आज वहां उनकी तीसरी चौथी और पांचवीं  पीढ़ी हैं जो उस देश के नागरिक हैं और वहाँ की कुल जनसंख्या का 33 प्रतिशत हैं। वे अपने पूर्वजों को, उनके गिरमिट के दिनों को याद करते हैं, उनके जीवन मूल्यों पर विश्वास करते हैं और अपने पूर्वजों द्वारा लाई भाषा और संस्कृति की सुरक्षा, प्रतिष्ठा  तथा संरक्षा के लिए निरंतर प्रयत्नशील है ।

सूरीनाम में हिंदी की स्थिति कैसी है?

सूरीनाम में हिंदी के प्रति अनन्य प्रेम व सम्मान है। हिंदी ज्ञान प्रतिष्ठा का प्रतीक है। हिंदी सेवा का कार्य स्वेच्छा से किया जाता है। लगभग 65 हिंदी शिक्षक हैं जो देश में निरंतर हिंदी पाठशालाएं चला रहें हैं। छह स्तर पर हिंदी की परीक्षाएँ आयोजित होती हैं और प्रत्येक वर्ष लगभग छह सौ विद्यार्थी हिंदी परीक्षा में बैठते हैं। यहाँ आपस में सरनामी हिंदी बोलने में किसी प्रकार का संकोच अनुभव नहीं किया जाता। यह आम हिंदुस्तानी के घर की भाषा है। हिंदुस्तानी मूल का हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी रोजगार में हो, डॉक्टर हो, तकनीक का विद्वान हो या व्यवसायी हो हिंदी सीखता है, बोलता है स्वयं को धन्य समझता है।

सूरीनाम के हिंदी रचनाकारों के बारे में बताएं ?

सूरीनाम में ऐसे अनेक हिन्दी रचनाकार हैं जो मानक हिन्दी और सरनामी दोनों में  ही रचना करते रहें हैं और बहुत से ऐसे रचनाकार भी हैं जो केवल सरनामी में ही लिख रहें हैं। इन सभी ने साहित्यिक जगत को बहुत सी श्रेष्ठ रचनाओं से समृद्ध किया है। हिंदी व सरनामी में लिखकर ये सब अपने को भारत से जुड़ा हुआ पाते हैं। उनकी कविताओं, लेखों, नाटकों में संस्कृति और उससे जुड़ाव की झलक है, भाषा प्रेम की अभिव्यक्ति है, हिंदी सीखने के लिए प्रेरणा है। समस्त जीवन की अनुभूतियों के बहुआयामी चित्र हैं और अतीत की वेदना है और साथ में है धार्मिक आस्था, भक्ति और लोकजीवन का संगीत।

डॉक्टर जीत नाराइन, सुरजन परोही से तो सभी परिचित हैं, उनकी पहचान वैश्विक स्तर पर बन चुकी है। पंडित लक्ष्मी प्रसाद बलदेव(बग्गा), श्री मंगल प्रसाद , मुंशी रहमान खान, बाबू चंद्रमोहन रणजीत सिंह, महादेव खुनखुन, रामनारायण झाव,  रामदेव रघुबीर वे नाम हैं जिन्हें अभी तक वैश्विक स्तर पर पहचान भले न मिल पाई हो लेकिन प्रवासी भारतीय हिंदी साहित्य में उनका योगदान महत्वपूर्ण है।

लेखन से जुड़े अन्य लोग भी हैं सुशीला बलदेव मल्हू, संध्या भग्गू, प्रेमानंद भोंदू, तेजप्रसाद खेदू, सुशीला सुक्खू, देवानंद शिवराज, धीरज कंधई, रामदेव महाबीर।

क्या ये सभी रचनाकार अभी भी सक्रिय हैं?

कुछ अभी सक्रिय हैं किंतु पिछले कुछ वर्षों में सूरीनाम ने कई महत्वपूर्ण हिंदी कवियों को खो दिया, अमर सिंह रमण, पंडित हरिदेव सहतू, जन सुरजनाराइनसिंह सुभाग, देवानन्द शिवराज सभी अपने आप में एक-एक संस्था थे जो हिंदी का परचम ऊँचा लहरा रहे थे। इनका निधन सूरीनाम के हिंदी जगत के लिए बहुत बड़ी क्षति है। अमर सिंह रमण लोक चेतना और अंतर चेतना के सफल कवि तो थे ही, काव्य, नाटक, निबंध के रचयिता, एक कुशल अभिनेता, रंगमंच निर्देशक, गायक और सामाजिक कार्यकर्ता भी रहे। पंडित हरिदेव सहतू हिंदी के एक सुदृढ़ स्तंभ थे जो सभी हिंदी सेवियों को जोड़े रखते थे।

सूरीनाम के की कवि व लेखक वर्तमान में हॉलैंड में बसे हैं। यह सब सूरीनाम की आजादी के समय जीविकोपार्जन व विकास हेतु हॉलैंड जा बसे किंतु उन्होंने हिंदी / सरनामी साहित्य को काफी स्मृद्ध किया है ये हैं- पंडित सूर्यप्रसाद बीरे, रबीन सतनाराइनसिंह बलदेवसिंह, राजमोहन, सुश्री चाँदनी, चित्रा गयादीन, मार्तिन हरिदत्त लछमन श्रीनिवासी, राज रामदास।

इनके अतिरिक्त भी काफी लोगों ने समय-समय पर लिखा है और हिंदी को समृद्ध किया है।

सूरीनाम के हिंदी साहित्य से संबंधित अपने शोध कार्य के बारे में बताएं ?

जैसा मैंने पहले भी कहा, सूरीनाम पहुंचने के पश्चात जब मैंने वहां के हिंदी लेखकों के बारे में जानना आरम्भ किया तो मुझे पता लगा कि हम वहां के बहुत कम कवियों व लेखकों से परिचित हूँ। तब पंडित हरिददेव सहतू जी के साथ मिलकर एक काव्य संकलन तैयार किया जिसका नाम है -एक बाग के फूल। यह 27 कवियों की कविताओं का संकलन है। इसी के साथ मैंने सूरीनाम में हिंदुस्तानी वंशजों के अन्य पहलुओं, जैसे वहाँ बोली जाने  वाली भाषा, उनके द्वारा रचित साहित्य व उनके द्वारा सहेजी गई संस्कृति पर अध्ययन आरंभ किया। अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों के साक्षात्कार लिए, और इसके परिणामस्वरूप तैयार हुई मेरी पुस्तक, सूरीनाम में हिंदुस्तानी भाषा, साहित्य व संस्कृति।

2012 में भारत लौटने पर मेरा कार्य रुका नहीं और जो भी जानकारी व साहित्य वहाँ एकत्र किया था उसे मूर्त रूप मिला, सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य नामक पुस्तक में। यह प्रतिष्ठित भाषा-वैज्ञानिक डॉ.विमलेशकान्ति वर्मा के सह-संपादन में हैं। इसके बाद डॉ. विमलेशकान्ति वर्मा जी के ही साथ प्रवासी भारतीय हिंदी साहित्य ग्रंथ पर भी कार्य किया जिसमें सूरीनाम, मॉरिशस, दक्षिण अफ्रीका और फीजी के लेखकों की रचनाएँ संकलित हैं।

सरनामी हिंदी क्या है?

सरनामी सूरीनाम के हिंदुस्तानियों की भाषा है। इसे प्रायः एक नई भाषा माना गया है किंतु मैं उसे हिंदी का ही एक रूप मानती हूँ। जिस तरह अवधी, भोजपुरी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, मगही, मारवाड़ी, हरियाणवी, कन्नौजी सब हिंदी की ही बोलियां हैं उसी प्रकार सरनामी भी हिंदी की एक विदेशी शैली है। भारत से सूरीनाम जाने  वाला समुदाय  विभिन्न क्षेत्रों से था। अवधी, भोजपुरी व अन्य बोलियों की मिश्रित भाषा में कालांतर में स्थानीय भाषाओं के शब्द भी जुड़ते गए और सरनामी का उद्भव हुआ। इसे सरनामी नाम देने का मुख्य ध्येय उस देश की भाषा के रूप में स्थापित करना था क्योंकि जब तक उसे उस देश के साथ नहीं जोड़ा जाता वहां उसकी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती थी।

कुछ लोगों का मानना है कि यह भोजपुरी के सबसे करीब है तो कुछ अवधि का अधिक समावेश मानते हैं। इस क्षेत्र में तटस्थ भाषावैज्ञानिक शोध अपेक्षित है।

क्या सूरीनाम में हिंदी या सरनामी भाषा में फिल्में भी बनती हैं?

जी नहीं। मेरे वहां से लौटने तक वहां किसी भी भाषा मे फ़िल्म निर्माण नहीं हो रहा था। डच भाषा मे कुछ डॉक्यूमेंट्री अवश्य बनाई जाती रही हैं। हिंदी गीत व संगीत की सीडी समय-समय पर बनाई जाती रही हैं।

सूरीनाम में रामायण और तुलसी का क्या स्थान है?

राम और तुलसी वास्तव में सूरीनाम के लोगों के हृदय में गहरे बसे हैं। जब भारत से अनुबंधित श्रमिकों को सूरीनाम ले जाया गया तो उनमें से बहुत से अपने साथ रामाचरितमानस व गुटका लेकर गए थे। रामकथा आरंभिक वेदनापूर्ण जीवन में उनका संबल बनी। 64 जहाजों से सूरीनाम पहुंचे श्रमिक अपनी अपेक्षाएं पूरी न होने और बद्तर स्थिति में पहुंचने के दुख और शारीरिक श्रम से टूटे थे, किंतु हारे नहीं थे। ये गिरमिटिया मजदूर शाम के समय एकत्र हो स्वदेश को याद करते अपने घर-गांव से जुड़े किस्से सुनाते, बिरहा के गीत गाते, और रामचरितमानस का पाठ करते थे। रामचरितमानस को ही उन्होंने अपनी आने वाली पीढ़ियों को हिंदी शिक्षा देने का आधार बनाया। सूरीनाम में बहुत से लोगों ने हिंदी सिर्फ इसलिए सीखी है कि वे रामचितमानस को पढ़ सकें। वहाँ आरंभ से रामकथा का मंचन भी किया जाता रहा है औऱ यह परंपरा आज भी कायम है। अनेक संस्थाएं अलग-अलग स्थानों पर रामलीला का मंचन कराती हैं। नवीन प्रयोगों द्वारा इनमें काफी सुधार भी हुए हैं।

वहाँ कुछ पंडितों व पंडिताओं ने रामायण की कथाओं का डच भाषा में अनुवाद भी किया है  ताकि नई पीढ़ी के लिए वह समझने में सहज हो।

 सूरीनाम के अतिरिक्त और किन विषयों पर व किन विधाओं में लिखा है आपने?

सूरीनाम पर पुस्तकों व बहुत से आलेखों के अतिरिक्त कविता, कहानी, हाइकु व लघुकथाएँ लिखी हैं जो निरंतर विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। कविताएँ तो कॉलेज के समय से ही लिखी हैं… लेकिन तब स्वान्तः सुखाय थीं… कभी प्रकाशित कराने की नहीं सोची। आज भी वे डायरी और रजिस्टरों के पन्नों में कैद हैं, वे मन की अनगढ़ अनुभूतियाँ हैं और बेहद निजी संपदा हैं। दो वर्ष पहले एक कहानी संग्रह नीली तितली हिंदी बुक सेंटर से प्रकाशित हुआ है जिसकी कई कहानियाँ सूरीनाम की पृष्ठभूमि पर हैं। मुझे खुशी है कि इसे पाठकों का बहुत स्नेह मिला है।

सूरीनाम से जुड़े किसी उल्लेखनीय कार्य के बारे में बताएँ।

सूरीनाम सेवा की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि वहाँ कंप्यूटर पर हिंदी टंकण की वर्कशॉप्स लेना रहा, जिसके परिणाम स्वरूप लोग स्वयं हिंदी टाइपिंग करने लगे। इससे पहले एक-दो लोग ही हिंदी टंकण कर पाते थे। इसके अतिरिक्त सूरीनाम सांस्कृतिक केंद्र (कल्चरल सेंटर सूरीनाम) में हिंदी पुस्तकों का एक अलग कोना आरंभ कराना महत्वपूर्ण था। इससे इच्छुक लोगों को हिंदी पुस्ततकें सहज उपलब्ध होने लगीं। मेरे कार्यकाल में सतत प्रोत्साहन से वहाँ अलग-अलग लोगों की सात हिंदी पुस्तकें आई, यह तथ्य भी सुखकर है।

आपकी साहित्य पढ़ने में रुचि कब से उत्पन्न हुई, अपने प्रिय लेखकों के बारे में बताएं?

मुझे बचपन से ही पढ़ने का बहुत शौक रहा। अंग्रेजी मीडियम स्कूल था वहाँ अच्छा पुस्तकालय था। आरंभ अंग्रेजी साहित्य पढ़ने से ही हुआ। गर्मियों की छुट्टियों में मोहल्ले के अपने से बड़े बच्चों की हिंदी व अंग्रेजी की किताबें ले आती… घर में भी पठन-पाठन का माहौल था तो सदा पढ़ने को प्रोत्साहित किया गया। जो भी पुस्तक मिलती, पढ़ लेती थी। एनिड ब्लाइटन की पुस्तकें मेरा पहला प्रेम थी। शायद ही उनकी कोई पुस्तक हो जो मैंने न पढ़ी हो। उनके बाद अगाथा क्रिस्टी, जेन ऑस्टन, डैफ्ने डू मॉरियर, वर्जिनिया वूल्फ में मनपसंद किरदार पाए।

हिंदी साहित्य से परिचय थोड़ा देर से हुआ, जब हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। ये एक नई दुनिया थी मेरे लिए। इसमें उस दुनिया का वर्णन था जो आसपास घटित हो रही थी। प्रेमचंद को पढ़ना आरंभ किया तो अहसास हुआ कि उनकी बहुत सी कहानियाँ पहले पढ़ चुकी हूँ… बस नाम के साथ जुड़ी नहीं थी। एक समय पर शिवानी को पढ़ना बहुत पसंद था। उनके लेखन में एक सम्मोहन है आप स्वयं बंधते चले जाते हैं, पात्रों से ऐसी तादात्मयता बन जाती है कि वे बहुत अपने से लगने लगते हैं। ऊषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, चित्रा मुद्गल, मृदुला गर्ग ने प्रभावित किया।

तो भी मैं ये कहूँगी कि लेखक से अधिक कोई रचना मेरे साथ रह जाती है जो दिल-दिमाग पर अपनी स्थाई छाप छोड़ जाती है। आपका बंटी, रुकोगी नहीं राधिका, पचपन खंभे लाल दीवारें उन में से कुछ हैं।

आज के हिंदी लेखन में आने वाले बदलावों को रेखांकित करें।

इधर कुछ समय से वर्तमान में रचे जा रहे साहित्य को पढ़ रही हूँ…और ऐसा महसूस किया कि जिस मात्रा में लिखा जा रहा है उतनी गहराई से नहीं लिखा रहा। हर किसी को अधिक से अधिक पुस्तकें लिख लेने की होड़ है। इस होड़ में गहराई की कुछ कमी महसूस होती है… सोशल मीडिया ने इस प्रवृत्ति को औऱ बढ़ाया है। दूसरा हिंदी को सरल करने के चक्कर में उसमें अंग्रेजी शब्द ठूस-ठूसकर भाषा का जो अहित किया जा रहा है वह तो अलग ही चर्चा का विषय है।

परिचय- एक नजर

भावना सक्सैना

जन्मस्थान- दिल्ली

प्रमुख कृतियाँ

– सूरीनाम में हिन्दुस्तानी, भाषा, साहित्य व संस्कृति

– नीली तितली (कहानी संकलन)

संपादन

सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य, प्रवासी हिंदी साहित्य, एक बाग के फूल, अभिलाषा, हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा का मार्च 2018 महिला विशेषांक

अनुवाद – कलाकारों का जीवन सरनामी (रोमन) से हिंदी

सम्मान – सूरीनाम हिंदी परिषद, सूरीनाम साहित्य मित्र संस्था और ऑर्गेनाइज़ेशन हिंदू मीडिया (OHM), सूरीनाम द्वारा श्रेष्ठ हिंदी सेवाओं और हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए सम्मानित किया गया

हरियाणा साहित्य अकादमी से वर्ष 2014 में कहानी तिलिस्म को प्रथम पुरस्कार प्राप्त।

नवंबर 2008 से जून 2012 तक भारत के राजदूतावास, पारामारिबो, सूरीनाम में अताशे पद पर रहकर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

राजीव कुमार झा
शिक्षक व लेखक

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