सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना,
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
यह वही अमर पंक्तियां हैं, जिन्हें आज सोशल मीडिया पर लिखकर हर अगला आदमी बुद्धिजीवी या कुछ-कुछ ज्ञानी बन जाता है। यह कैसे लिखी गईं, इसकी रोचक कहानी है। दरअसल वह 20वीं सदी का एक दशक था। अमेरिका पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और एक महाशक्ति के तौर पर स्थापित था। इसी अमेरिका में एक युवक भारत से पहुंचा था। कुछ सपने और कुछ मजबूरी लेकर। सपने वह रात को खुली आंखों से देखता और मजबूरी उसे एक फ्यूल स्टेशन पर ले गई। यहां वह आती-जाती गाड़ियों में पेट्रोल भरा करता था। इसी दौरान उसे लगा कहीं उसके सपने मर तो नहीं रहे हैं। कहीं वह अपने आपको खत्म तो नहीं कर रहा है। यही कसमसाहट कविता बनकर कागजों में उतर आई। जमाना इन्हें आज पाश की कविता के तौर पर जानता है। पाश सत्तर के दशक में पंजाबी काव्य जगत के रौशन सितारा थे। वह अपने समाज और अपनी ज़मीन से सीधे जुड़े हुए कवि थे। अवतार सिंह संधू ‘पाश’ का जन्म नौ सितंबर 1950 में तलवंडी सलेम जिला जालंधर में हुआ था।
पाश की कविताओं को पढ़ते हुए बार-बार आप पाठक की भूमिका भूल जाते हैं और अपने समय और अपने ख़ुद के वजूद से एक बार फिर साक्षात्कार करने लगते हैं, और एक ऐसे आत्मसंघर्ष में उतर पड़ते हैं जो अपने किसी बहुत नज़दीकी दोस्त के साथ अंतरंग ईमानदार बातचीत के दौरान ही मुमकिन हो सकता है। अस्सी के दशक में राज्यसत्ता और खालिस्तानी आतंकवादियों के दोहरे फासिस्ट दबाव में पंजाब ने एक बार फिर जो झेला, वह उपनिवेशवादी दमन के गुज़रे हुए दौरों के भी पीछे छोड़ देने वाला था। इस बीहड़ दौर में पाश ने ‘धर्मदीक्षा के लिए विनयपत्र’ और ‘सबसे ख़तरनाक’ जैसी दस्तावेजी राजनीतिक कविताएं लिखीं। पाश की कविताएं उस समय के गहरे इतिहास-बोध की कविताएं हैं, जो पूरी दुनिया और हमारे देश के स्तर पर एक विचित्र किस्म का, जटिल किस्म का संक्रमण-काल रहा है। पाश की कविताएं गहरे अर्थों में राजनीतिक कविताएं हैं। पाश की कविताओं की एक अपनी लय है जो पंजाबी लोक साहित्य की वाचिक परंपरा और वहां के जनसंघर्षों के सुदीर्घ इतिहास की लोक-स्मृतियों के साथ ही वहां की मिट्टी, वहां की नदियों, वहां के नृत्यों-गीतों से रची हुई है। लेकिन इसके साथ ही साथ पाश की प्रगतिधर्मिता में पूरे भारतीय जन की स्मृति, परंपरा और समकालीन जीवन की गति का द्वंद्व भी है और पूरी दुनिया के लड़ते हुए लोगों के बिरादराना रिश्तों की बुनावट भी।
पाश सत्तर के दशक में पंजाबी काव्य जगत के रौशन सितारा थे। वह अपने समाज और अपनी ज़मीन से सीधे जुड़े हुए कवि थे।
पाश की कविताओं को पढ़ते हुए बार-बार आप पाठक की भूमिका भूल जाते हैं और अपने समय और अपने ख़ुद के वजूद से एक बार फिर साक्षात्कार करने लगते हैं, और एक ऐसे आत्मसंघर्ष में उतर पड़ते हैं जो अपने किसी बहुत नज़दीकी दोस्त के साथ अंतरंग ईमानदार बातचीत के दौरान ही मुमकिन हो सकता है। अस्सी के दशक में राज्यसत्ता और खालिस्तानी आतंकवादियों के दोहरे फासिस्ट दबाव में पंजाब ने एक बार फिर जो झेला, वह उपनिवेशवादी दमन के गुज़रे हुए दौरों के भी पीछे चोड़ देने वाला था। इस बीहड़ दौर में पाश ने ‘धर्मदीक्षा के लिए विनयपत्र’ और ‘सबसे ख़तरनाक’ जैसी दस्तावेजी राजनीतिक कविताएं लिखीं।
पाश की कविताएं उस समय के गहरे इतिहास-बोध की कविताएं हैं, जो पूरी दुनिया और हमारे देश के स्तर पर एक विचित्र किस्म का, जटिल किस्म का संक्रमण-काल रहा है। पाश की कविताएं गहरे अर्थों में राजनीतिक कविताएं हैं। पाश की कविताओं की एक अपनी लय है जो पंजाबी लोक साहित्य की वाचिक परंपरा और वहां के जनसंघर्षों के सुदीर्घ इतिहास की लोक-स्मृतियों के साथ ही वहां की मिट्टी, वहां की नदियों, वहां के नृत्यों-गीतों से रची हुई है। लेकिन इसके साथ ही साथ पाश की प्रगतिधर्मिता में पूरे भारतीय जन की स्मृति, परंपरा और समकालीन जीवन की गति का द्वंद्व भी है और पूरी दुनिया के लड़ते हुए लोगों के बिरादराना रिश्तों की बुनावट भी। पाश एक अच्छे कवि ही नहीं एक अच्छे संपादक भी थे। उन्होंने 1972 में ‘सियाड़’ नाम से एक पत्रिका भी निकाली थी बाद में वह कुछ समय तक ‘हेम ज्योति’ पत्रिका के संपादक भी रहे। जुलाई 1986 में कैलिफोर्निया से ‘एंटी 47 फ्रंट’ नाम की पत्रिका भी निकालते रहे।
पाश के तीन काव्य संग्रह उनके जीते जी पंजाबी में प्रकाशित हुए। 1970 में ‘लौहकथा’, 1973 में ‘उड्ड्दे बाजाँ मगर’, 1978 में ‘साडे समियाँ विच’। पाश के निधन के बाद 1989 में अमरजीत चंदन के संपादन में काव्य संग्रह ‘खिल्लरे होए वर्के’ प्रकाशित हुई।
पाश के काव्य संग्रह हिंदी में भी प्रकाशित हुए। पाश की शहादत के ठीक एक साल बाद 23 मार्च 1989 को ‘बीच का रास्ता नहीं होता’ प्रकाशित हुआ। हिंदी में उनके अन्य काव्य संग्रह हैं ‘समय, ओ भाई समय’, ‘हम लड़ेंगे साथी’, ‘पाश के आस-पास’, ‘पाश की कविताएं’।
पंजाब में जब खालिस्तानी आतंकवाद अपने उफ़ान पर था और बहुत से साहित्यकारों ने चुप्पी साध रखी थी। पाश की कलम उस समय भी नहीं रूकी। पाश ने अपनी कविताओं के जरिये मोर्चे पर डटे रहे। 23 मार्च 1988 में आतंकवादियों (खालिस्तानियों) के हाथों अपने मित्र हंसराज के साथ अपने गांव में मारे गए।
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