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दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र क्यों होता जा रहा है लोकतंत्र विहीन?

“मजबूत लोकप्रियता, कमजोर लोकतंत्र की निशानी होती है”

2010 में ‘अरब स्प्रिंग’ ने दुनिया में लोकतंत्र के फैलाव को लेकर जो उम्मीदें जगाई थीं वो लगता है अब फिर से गहरी नींद में जा रहीं हैं। भारत, ब्राज़ील जैसे बड़ी आबादी वाले देशों में लगातार गिरते लोकतंत्र ने दुनिया में लोकतंत्र के चहेतों के माथे पर पसीना ला दिया है। हाल ही में जारी इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर डिमोक्रेसी ऐंड इलेक्टोरल असिस्टांस (International-IDEA) 2021 की रिपोर्ट ने इसकी पुष्टि की। भारत जो खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता है, में हालात बदत्तर होते जा रहे हैं। एक साल के भीतर तीसरी रिपोर्ट ने इसको पुख्ता किया है। कश्मीर को एक साल तक कैद रखना, दुनिया में सबसे अधिक इंटरनेट बैन, स्वतंत्र मीडिया और पत्रकारों पर कानूनी मुकदमें, अल्पसंख्यक समुदायों पर हमले, आंदोलनकारियों पर फर्जी केस लगाकर जेल में डालना, आदिवासियों के लिए काम करने वालों को अर्बन नक्सल बताकर जेल में डालना, विपक्षी दलों के नेताओं पर जांच एजेंसी और इनकम टैक्स के छापे पड़ना, विरोधियों और आलोचकों को चुप कराने के लिए देशद्रोही बताना बिलकुल सामान्य कर दिया गया है। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद देशद्रोह और आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत गिरफ़्तारी में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है।

अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता पर चोट

केंद्र में बीजेपी की सत्ता आने के बाद देश में अल्पसंख्यकों को लगातार निशाना बनाया जाता रहा है। अभी हाल ही में राजधानी के बिल्कुल समीप गुड़गांव में मुस्लिम समुदाय को नमाज़ न पढ़ने देना इसका ताजा उदाहरण है कि किस प्रकार अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों पर प्रहार किया जा रहा है और दिल्ली के सत्ताधीशों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है। ऐसा लगता है कि इस तरह के व्यवधान और हंगामा करने वालों को कानूनी सुरक्षा मिली हुई है जबकि उमर खालिद और शरजील इमाम जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के युवाओं को सरकार की आलोचना के लिए आतंकी कानून के तहत जेल में डाल दिया गया है। दिल्ली सहित देश भर में जब नागरिकता कानून के विरोध में लोग सड़कों पर उतरे तो उनके खिलाफ सत्ताधारी दल के नेताओं के द्वारा नफरत और घृणित बयान दिए गए। इसमें बीजेपी के साधारण कार्यकर्ता से लेकर केंद्रीय राज्य मंत्री और गृह मंत्री तक शामिल रहे। दिल्ली दंगो पर जिस प्रकार की जांच हुई उस पर दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्पणियां और पुलिस को कई बार फटकारना ये बताता है कि जांच कितनी एक तरफा की जा रही है। इसके अलावा भड़काऊ बयान देने वाले बीजेपी नेताओं को पुलिस ने छुआ तक नहीं। उसी प्रकार किसान आंदोलन के दौरान सिख समुदाय को निशान बनाया गया। और अभी हाल ही में त्रिपुरा और कर्नाटक  में मस्जिद और चर्च हमले किये गए। ईसाइयों पर धर्म परिवर्तन को बढ़ावा देने का आरोप लगाकर लगातार हिन्दू संगठनों द्वारा निशाना बनाया जा रहा है।

नागरिक अधिकारों को लगातार छीना जा रहा है

देश में नागरिकों के अधिकार लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं। अभी हाल ही में कॉमेडियन मुनव्वर फारुखी और कुणाल कामरा के बैंगलोर शो जिस प्रकार हिंदूवादी संगठनों के दवाब में कैंसिल किये गए। इन शो का कैंसिल होना मात्र नागरिक अधिकारों के सिमटने की एक बानगी है। कश्मीर, असम, मणिपुर और उत्तर प्रदेश के नागरिकों पर छोटे-छोटे अपराधों के लिए आतंक विरोधी कानून लगाए गए हैं। संसद में दिए गए आंकड़ों के हिसाब से कश्मीर को हटाकर बीजेपी शासित 3 राज्यों में यूएपीए (यूएपीए) के कुल मामलों में से 70 फीसद से अधिक मामले दर्ज किये गए हैं। इससे पहले पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रावी पर देशद्रोह का मुकदमा, कफील खान पर NSA लगाया गया। इन दोनों मामलों में कोर्ट ने इसे अवैध बताया और रद्द कर दिया। आपको याद होगा कि किस प्रकार 2016 में जेएनयू विवाद को उठाया गया, जिसमें कन्हैया, उमर खालिद और अनिर्बान को देशद्रोही साबित करने की कोशिश गयी लेकिन अब तक इसपर सुनवाई भी शुरू नहीं हुई।

मीडिया और अभिव्यक्ति की आज़ादी का ह्रास

जो भी पत्रकार और मीडिया घराने सच्चाई दिखाने और सरकार की नीतियों की आलोचना करने की हिम्मत करते हैं उनको निशाना बनाया गया है। अभी हाल ही में त्रिपुरा हिंसा की रिपोर्टिंग के दौरान 2 महिला पत्रकारों पर मुक़दमे दर्ज किये गए। इसके अलावा 102 लोगों पर जिसमें कुछ पत्रकार भी शामिल थे उन पर मात्र सोशल मीडिया पर लिखने के लिए यूएपीए लगा दिया गया। संसद की कार्यवाही को कवर करने वाले पत्रकारों को कोविड के दौरान प्रतिबंधित कर दिया था। जब सब कुछ खोल दिया गया लेकिन संसद में पत्रकारों के जाने पर अभी भी ये प्रतिबन्ध जारी है। इसके विरोध में 2 दिसंबर को पत्रकारों ने मार्च भी निकाला था। सिद्दीकी कप्पन का मुकदमा कौन भूल सकता है जिन्हें सिर्फ हाथरस पर रिपोर्ट करने लिए रास्ते में से ही गिरफ्तार किया गया और उन पर आतंकी विरोधी कानून लगा दिए गए हैं। जिससे उन्हें आज तक जमानत नहीं मिल सकी। इसी प्रकार भीमा कोरेगांव मामले के तहत 18 से अधिक सामाजिक कार्यकर्ताओं को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किये हुए 3 साल से अधिक हो गये हैं। लेकिन अब तक इन मामलों पर चार्जशीट भी दाखिल नहीं की जा सकी। इनमें से ही एक सामाजिक कार्यकर्ता स्टेन स्वामी की जेल में ही मौत हो गयी।

देश की राजनीति में धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है। हर चुनाव से पहले नेताओं के द्वारा धार्मिक नारों और प्रतीकों पर बल दिया जा रहा है, साथ ही अन्य धर्मों को निशाना बनाया जा रहा है। खतरनाक बात यह है कि धर्म न सिर्फ राजनीतिक वोटों का आधार बन गया बल्कि देश प्रेम को भी अब इस आधार पर परखा जा रहा है। इससे आंतरिक विभाजन तो बढ़ ही रहा है बल्कि लोकतंत्र का स्तर भी गिरता जा रहा है। क्योंकि मजबूत लोकतंत्र समान अधिकारों का पक्षधर होता है। इसके अलावा जिस प्रकार संस्थाएं सरकार की हाथ की कठपुतली बन गयी हैं इस लोकतंत्र के क्षरण को और तेजी मिली है। अभी हाल ही में लोकतंत्र के हालात पर जो रिपोर्ट आयी है उसमें भारत जैसे देशों में लोकप्रियवाद को लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा बताया है। किसी लोकतंत्र में एक व्यक्ति का बेहद लोकप्रिय होना उसे किसी भी तरह के फैसले लेने की छूट दे देता है जो आगे चलकर तानाशाही के लिए जमीन तैयार करता है। भारत को जरूरत है कि राजनीतिक फंडिंग के लिए एक ऐसा तंत्र बनाया जाए जिससे किसी एक दल को ही सारी फंडिंग न जाए। क्योंकि एक पार्टी के पास अधिकतर फंडिंग जाने से वह जनता को आसानी से और दूसरे के मुकाबले अधिक प्रभावित करते हैं। जिससे उनके नेताओं के लोकप्रियता में और बढ़ोतरी होती जाती है जो लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

सचिन
आईआईएससी के छात्र रहे हैं और कई मीडिया संस्थानों में भी काम कर चुके हैं।

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