छत्तीसगढ के कवि रजत कृष्ण की कविताओं में इस जनपद के लोक जनजीवन का सौंदर्य खास कर प्रकट हुआ है। प्रस्तुत है इनसे राजीव कुमार झा की बातचीत
कविता लेखन की शुरुआत स्कूली शिक्षा के दिनों में तब हुई जब एक बार अपने आँगन में दो चिड़ियों को दाना चुगते और मस्ती करते देखा! दरअसल मैं बचपन से ही चित्रकारी और मूर्ति कला में भी रुचि रखता था, अतः यह दृश्य “कितने अच्छे हैं पंछी” शीर्षक से शब्दबद्ध हो गया और इस तरह अवसर विशेष पर समय- समय में कविताएँ रचने लगा, कालांतर में उम्र बढ़ने के साथ ही बाल कविता रचने से आगे बढ़ते हुए अन्य विषय पर भी लिखने लगा।
![](https://forum4.co.in/wp-content/uploads/2020/06/WhatsApp-Image-2020-06-14-at-9.51.02-AM-150x150.jpeg)
रजत कृष्ण
उठो! जागो!
उम्मीद के ओ बुझे हुए दीये
सहेज लो फिर से
जीवन की बाती
सपनों का तेल
तिल-तिल जोड़ते!
देखो
आँखे खोलकर फिर से
उन अहातों-गलियों को
पद चिन्ह छुटे हैं जहाँ
उजास जीवी हमारे पुरखों के !
बखत की कड़ी मार से
लाख करिया जाए जिंदगी
चाहे ग्रस ले
बिपत का अमावस कोई
उम्मीद की हमारी किरणों को;
बाँचना माटी के नन्हे से दीये का जीवन तुम
कि चीरता आ रहा है
कैसे एक अकेले ही वह
सदियों से
अँधेरे की हरेक चट्टानी छाती!
शुरू-शुरू में सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिका में प्रकाशित कविताएँ प्रभावित करती थी और ऐसी एक-दो कविताएँ तब ‘सरिता’ में छपी भी। लेकिन, जल्द ही यह समझ आया कि मुझे ऐसी कविताओं से इतर लिखना है…और मैंने साहित्यिक पत्रिकाओं की ओर रुझान बढ़ाया।
कविता लेखन में मुझे अपना स्थानीय परिवेश,अपना गाँव-जनपद, वहाँ के जन, अपने परिजन, अपने संगी-साथी, खेत मे काम करती मेरी अपनी माँ, बहनें, पिता और जनपद के श्रमशील अन्यान्य लोग ही जीवंत रूप में सदैव भाते हैं और यही मेरी कविता के असल चरित्र हैं।
हमारा परिवार किसानी परिवेश से नाभि-नाल जुड़ा हुआ है। मेरी प्राथमिक शिक्षा धमतरी जनपद के छोटे से गाँव लिमतरा में हुई। हांलाकि पिता जी टेलीफोन विभाग में ऑपरेटर थे, लेकिन वह नियमित रूप से खेती भी करते थे और मेरी माँ तो अब भी (70 की उम्र में) खेती करती हैं। मेरी बहने-दीदी भी खेतिहारिन हैं जो छत्तीसगढ़ के अलग-अलग जनपद में किसानिन कि भूमिका निभाते हुए श्रमरत हैं। यहां पिता के बाद अब खेती का काम बड़े भैया और भाई करते हैं।
मेरे प्रिय कवि-लेखक तो कई हैं लेकिन, मुझे सादतपुर, दिल्ली के विष्णुचन्द्र शर्मा जी से लेकर जोधपुर के सत्यनारायण, जयपुर के राजाराम भादू , छत्तीसगढ़ के एकांत श्रीवास्तव, नासिर अहमद सिकन्दर, शरद कोकाश, कमलेश्वर साहू, भास्कर चौधुरी, सूरज प्रकाश, संजीव बक्शी, विजय सिंह सहित कई महत्वपूर्ण नाम याद रहते हैं सदैव, जिन्होंने अपनी स्नेहिलता और साहित्यिक संस्कार व सरोकारों से मुझे प्रभावित किया है। ऐसे और भी बहुत से हमउम्र रचनाकार साथी हैं, जिनकी सूची लंबी है।
मेरी प्राथमिक शिक्षा छत्तीसगढ़ के धमतरी जनपद के लिमतरा गाँव मे हुई, फिर मिडिल से लेकर स्नातक तक की पढ़ाई बागबाहरा जनपद में हुई। स्नातक की पढ़ाई के बाद स्वास्थय संबधी दिक्कतों की वजह से निययमित शिक्षा मुझे 14 साल तक रोकनी पड़ी। लेकिन, इस दौरान मैंने घर में रह कर साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ना, अखबारों के लिए समय-समय पर कविताएँ लिखना धीर-मन्थर ढंग से जारी रखा। फिर 2004 में विपरीत हालात में भी साहित्यिक अग्रजों राजा राम भादू, सत्यनारायण, एकांत श्रीवास्तव, विजय सिंह, नासिर अहमद सिंकदर आदि के प्रोत्साहन भरे पत्रों, फोन-संवाद से प्रेरित होकर 14 साल के अंतराल पश्चात महाविद्यालय की अपनी रुकी पढ़ाई पुनः आगे बढ़ाते हुए हिंदी साहित्य में एमए और फिर पीएचडी के साथ ही सेट की पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण की।
हमारा घर-परिवार पूर्णतःकिसानी परिवेश वाला है, अतः खेत-खार, मजदूर ,धान, गाय-बैल से जुड़े दृश्य-प्रसंग उभर कर आते गए। अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार यह सभी मेरी कविता में सहज आते हैं, क्योंकि हमारा पूरा परिवेश जनपदीय राग-रंगों से अब भी सराबोर है। छोटी-छोटी पहाड़ियां, दूर-दूर तक फैले जंगल, तेंदू, महुआ, चिरौंजी सहित कई वनोपज और बीड़ी पत्ते इधर के बड़ी आबादी की आजीविका के साधन हैं।
बदले परिवेश में अब यहाँ जंगली जानवरों के लिए संकट बढ़ता जा रहा है। आबादी का दबाव बढ़ने के साथ ही,जंगली हाथी, भालू, बन्दर सहित कई जंगली जानवर आबादी तक पहुंचने लगे हैं, जिससे जन-जीवन असुरक्षा भाव से भरकर जीने को मजबूर हैं।
जहां तक लघु पत्रिकाओं के योगदान की बात है, तो आज का बेहतर साहित्य लघु पत्रिकाओं के माध्यम से ही सामने आ रहा है। हमारे समय का बेहतर साहित्य लघु पत्रिकाओं के माध्यम से देश के विभिन्न अंचलों में में पहुंचता है। लघु पत्रिकाएँ न होतीं तो पिपरिया, चन्दौसी, कांकरोली, बागबाहरा, जैसे छोटे-छोटे जनपदों से आज जो कई पत्रिकाएँ निकल रही हैं वे शायद ही नजर आतीं।
छतीसगढ़ को मुक्तिबोध के नाम से पहचाना जाता है, यह गर्व का विषय है। यहां पदुम लाल पुन्नालाल बक्शी, मुकुटधर पांडे, श्रीकांत वर्मा जैसे साहित्यकारों के साथ ही कबीर के शिष्य सन्त धर्म दास, सतनाम पंथ के प्रवर्तक गुरु घासी दास और मुक्तिबोध की कर्मस्थली के नाते यह हमारे लिए गौरव की भूमि है। साथ ही हम तीजन बाई की पण्डवानी, महान रंगकर्मी हबीब तनवीर और हिंदी सिनेमा के एक विशिष्ट नायक किशोर साहू की जन्म भूमि होने का गर्व भी हमें सदैव कुछ अच्छा करने को प्रेरित करता है।
राज्य की नक्सली समस्या से जूझने का जो सवाल है तो इसके कारणों को ऊपरी व सतही तौर पर व्यक्त नही किया जा सकता। यह एक राजनीतिक और जटिल पेचिदगियों भरा संवेदनशील सवाल है, जिसका जवाब देना यहाँ मेरे लिए संभव नही है। राजनीतिज्ञ और सामाजिक संघर्ष से जुड़े लोग ही इसे बेहतर बता सकते हैं।
मेरी दृष्टि में पिछले डेढ़- दो दशकों की हिंदी कविता लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि जो जन, जनपद और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार की कविता को जनपद से तथाकथित क्रांतिकारिता भाव और भाषाई शुद्धतावाद के मारे सुनियोजित ढंग से अदृश्य कर दी जाने लगी थी, उसे पुनर्स्थापित करने का उद्यम तेज हुआ। इस क्रम में देशज राग-रंग और चरित्र बहुलता भी नए धज में सामने आता गया।
इस दौर में जो कवि परिदृश्य में उभरे उनका विकास अपने जातीय राग-रंग और पारिवारिक नाते-रिश्ते को सहेजने -संभालने में सन्नद्ध देखना दरअसल अपनी समृद्ध परंपरा को ही पुष्ट होते देखना है।
वर्तमान में हिंदी कविता लेखन में जो पीढ़ी सामने आ रही है, उनको अपनी परंपरा से दो बातें अवश्य सीखनी चाहिए, एक तो यह कि सदैव अपनी जड़ और जमीन से जुड़ करके ही हम रचनारत रहें। दूसरी यह कि हम सिर्फ लिखत भर के कवि न हों, बल्कि अपने विचार, व्यवहार और सरोकार के स्तर पर जीयत के भी कवि हम बने, यानी हमारी कथनी-करनी में अंतर ना हो।
हमारे जो पुरखे कवि बड़े, जनोन्मुखी व जन प्रिय देश- समाज के लिए हो सके, उन्होंने अपनी लकीरें सदैव लंबी रखी। हमे उसे याद रखना चाहिए हर हाल में।
समाज के वर्तमान संकटों के बीच भक्ति काल के कबीर, तुलसी, जायसी, रहीम सहित आधुनिक काल के मुक्तिबोध, केदार नाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि से हमें यही प्रेरणा लेनी चाहिए कि हम जब तक अपनी जड़ों की गहराई, तनों के विस्तार, भावों की सहजता और दृष्टि की व्यापकता को साध नही लेते, तब तक अपनी कविता को काल अनुरूप प्रासंगिक भी नही बना सकते। दरअसल प्रासंगिकता समय सापेक्ष होती है। जाहिर है किसी भी कवि की उम्र उसके कविता के होने की अवस्थिति पर निर्भर करता है। अंततः यही कहा जा सकता है कि हमारे यह पुरखे कवि चूंकि जीवन और उसकी समस्याओं से नाभिनाल जुड़े रहकर सदैव संवादोन्मुखी बने रहे और देश-काल के अनुरूप संघर्षरत रहे, अतः भविष्य में भी यही हमारे आदर्श रहेंगे।
परिचय- एक नजर
रजत कृष्ण
जन्म- 26 अगस्त 1968, छत्तीसगढ़ धमतरी जनपद के लिमतरा गाँव के किसान परिवार में।
शिक्षा: प्राथमिक शिक्षा गांव में ही और आगे की समस्त शिक्षा, यथा हायर सेकेंडरी, बीकाम स्नातक, एमए हिंदी, स्थानीय शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागबाहरा में।
पी-एचडी- पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर में “विष्णु चन्द्र शर्मा और उनका रचना संसार विषय” पर।
सम्प्रति: स्थानीय शासकीय खेमराज, लक्ष्मीचंद कला, वाणिज्य एवं विज्ञान स्नातकोत्तर महाविद्यालय बागबाहरा, जिला: महासमुंद (छतीसगढ़) में अध्यापनरत।
साहित्य में रुचि स्कूली शिक्षा के समय से, काव्य एवं गद्य लेखन समान रूप से सतत जारी
प्रथम प्रकाशन- स्थानीय पत्र “नवभारत”, “देशबन्धु” से होते हुए राजस्थान, भरतपुर के साहित्यिक पत्र “दिशा- बोध” (संपादक: राजाराम भादू) में प्रकाशन के साथ क्रमशः प्रकाशन जारी। इस क्रम में कालान्तर में “समकालीन भारतीय साहित्य” वागर्थ “साक्षात्कार”, “कथन”, “अलाव”; “संप्रेषण”, “कृति ओर”, “संबोधन”, “संभवा”, “अक्षर पर्व”, “अक्षरा”, “सेतु”, सहित देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में नियमित लेखन।
“सूत्र” एवं “संकेत” पत्रिकाओं के अंक पूर्णतः मेरी रचनाओं और जीवन पर एकाग्र अंक रूप में प्रकाशित
वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु चन्द्र शर्मा, दिल्ली की साहित्यिक लघु पत्रिका “सर्वनाम’ के संपादन दायित्व का निर्वहन- अंक: 82 (अप्रैल-जून, 2006) से अब तक जारी
पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर में शोध छात्रों द्वारा “(01) छत्तीसगढ़ की युवा कविता में रजत कृष्ण का योगदान” एवं (02) रजत कृष्ण: जीवन की रचनात्मकता और रचनात्मकता का जीवन” विषय पर शोध
सम्प्रति : सर्वंनाम का संपादन -प्रकाशन( अव्यवसायिक रूप से) एवं शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बागबाहरा, जिला: महासमुंद (छत्तीसगढ़) में प्राध्यापकी
संपर्क: वार्ड न. 05, बागबाहरा, जिला:महासमुंद (छग), पिन -493449
मोबाइल नं. – 9755392532, 8959271277
ईमेल- rajatkrishna.68@gmail.com
Be the first to comment on "सदैव अपनी जड़ और जमीन से जुड़ करके ही हम रचनारत रहें- कवि रजत कृष्ण से बातचीत"