सुबह उठता हूँ,
कूकती है कोयल,
चहकते हैं पंछी
बहती है हवा
और बज उठती हैं घण्टियां
जोर-जोर से फड़फड़ाते हैं पर्दे
और फट्ट की आवाज से बन्द हो जाती हैं खिड़कियां
मैं बाहर निकलकर सड़क देखता हूं
कोई नहीं है
खाली है, अकेली है
क्यों…कोई तो वजह है।
आंधी है, तूफान है क्या जलजला है आया,
कहां गया शहर, सन्नाटा क्यों छाया।
फिर दिखते हैं बढ़ते दो कदम,
निरीह कोई पशु, पर जात है आदम।
चेहरा मलिन है, पर आंखों में ओज है
और उसके कांध पर अपने जिगर का बोझ है।
लपेट रखा है उसने संविधान का खद्दर
घन-घाम हो तो छाता, शीत हो तो चद्दर।
पांवों में पहिरन नहीं, नहीं कोई संकट,
छाले ही चुन लेते हैं रास्तों के कंटक।
जितने कदम बढ़ाते वो आगे आ रही है,
पीछे की सड़क सारी धसकती सी जा रही है।
शोले से फूट पड़ते हैं, एक-एक कदम के नीचे,
तूफान सी गरज है, उसकी सिसकियों के पीछे।
कौन है वह, क्या कोई अपराधिनि जा रही है?
नहीं, वो हमारे लोकतंत्र की समाधि आ रही है
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