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कविता का गहरा प्रभाव हमारी संस्कृति और संस्कारों पर कैसे पड़ा है, इसे जानने के लिए नरेश शांडिल्य के इन विचारों को पढ़िये

नरेश शांडिल्य

समकालीन हिंदी दोहा लेखन में ‘दोहों के आधुनिक कबीर’ के रूप में विख्यात और लोकप्रिय नरेश शांडिल्य एक प्रतिष्ठित कवि, दोहाकार, शायर, नुक्कड़ नाट्यकर्मी और संपादक हैं। विभिन्न विधाओं में आपके 7 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आपने अनेक साहित्यिक पुस्तकों का कुशल संपादन भी किया है। एक समीक्षक के रूप में भी आपकी अलग पहचान है।

प्रस्तुत है- सुपरिचित कवि नरेश शांडिल्य से राजीव कुमार झा की बातचीत


हमारे देश की संस्कृति को यहाँ की काव्य परंपरा कितना प्रभावित करती रही है

जहां तक संस्कृति का प्रश्न है, उसका किसी भी देश की प्रमुख भाषाओं और उन भाषाओं के साहित्य से सीधा संबंध होता है। उसी तरह हमारे देश की संस्कृति पर भी प्रमुख रूप से भारतीय भाषाओं के साहित्य का, जिसमें मुख्यत: कविता का गहरा प्रभाव हमारी संस्कृति और संस्कारों पर पड़ा है। उदाहरण स्वरूप कहूं तो हिंदी साहित्य के शीर्ष कवि तुलसी हमारी भारतीय चेतना में गहरे रचे बसे हैं; इसी तरह कालिदास, वाल्मीकि, भारती, टैगोर आदि एक लम्बी फेहरिस्त है।

कविता लिखते हुए आपने किस भाव विचार को अपनी चेतना में केन्द्रित पाया ?

हमारे ज्ञात खानदान में संभवत: मैं ही कविता की ओर मुड़ा। हालांकि मुझे इसके संस्कार घर में अपने माता पिता से ही मिले। मेरी मां से मुझे रामचरितमानस और भागवत के भक्ति रस में पगे भाव मिले तो पिता जी से गीता और उपनिषदों जैसे तर्कशास्त्रों का सारगर्भित ज्ञान मिला। इस सबका मेरी कविता पर गहरा प्रभाव है। क्योंकि कविता भी हृदय और बुद्धि का ही उत्तम समन्वय है। मैं भी अपनी अभिव्यक्ति को हमेशा तर्कों पर कस कर ही कविता रूप में सामने लाने का प्रयास करता हूं।

कविता अपनी अभिव्यक्ति के लौकिक अलौकिक सरोकारों में जीवन को किस उदात्तता की ओर उन्मुख करती है ?

अच्छी कविता ऊर्ध्वगामी होती है। अधो गामी नहीं। अर्थात एक अच्छी कविता की यात्रा नीचे से ऊपर की ओर ही होती है। कविता क्योंकि केवल यथार्थ की ही हूबहू अभिव्यक्ति नहीं है, अपितु यह एक खूबसूरत ख़्वाब की तरह भी है जो हमेशा सकारात्मक रहने के लिए हमें प्रेरित करता रहता है। यही इसकी अलौकिकता है। इसी को आप अध्यात्म से जोड़ कर भी देख सकते हैं। दरअसल, लौकिकता में अलौकिकता की खोज ही कविता का ध्येय भी होना चाहिए। तभी एक कवि यहां तक कहता है –

“दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है/ हम दानाओं को थोड़ी सी नादानी दे मौला”

हिंदी काव्य लेखन का धरातल आपको कितना सहज और असहज प्रतीत होता है . इसमें अनेक प्रकार के वाद विवाद क्यों उठते रहे हैं ?

हमारे मर्मज्ञ ऋषियों , कवियों ने पहले ही माना है -“मुंडे मुंडे मतिर भिन्ना “… हमारी संस्कृति में पगे साहित्य ने हमेशा यही कहा है कि चिंतन, मनन और विमर्श के बाद ही सही निष्कर्ष निकलता है। इस सबके लिए वाद, विवाद, प्रतिवाद सब कुछ होगा ही और होना भी चाहिए। असहजता से ही सहजता का जन्म होता है। साहित्य में असहमति का स्वागत किया जाना चाहिए। हम सभी सत्य की खोज में लगे हैं; सत्य क्या है, ये ज़रूरी नहीं कि हमें पता ही हो! इस लिए हम उसको अपने अपने तरीक़े से, अपनी अपनी सीमाओं में व्यक्त करते हैं। ऐसी स्थिति में वाद विवाद अवश्यंभावी है।

आप नाट्यानुशीलन से भी जुड़े रहे हैं। हिंदी कविता नाट्य प्रभावों से अपनी अभिव्यक्ति को कितना सार्थक बनाती रही है ?

नाट्य विधा कला और साहित्य की अनेकानेक विधाओं का एक समुच्चय ही है। नाट्य विधा में काव्य भी है, संगीत भी है, संवाद प्रस्तुति भी है, अभिनय भी है, चित्रकला भी है, गायन कला भी है तथा इन सबसे जुड़ी और भी कई कई खूबियां समाहित हैं। मेरा सौभाग्य रहा कि मैं एक नाट्यकर्मी भी हूं। ख़ासकर नुक्कड़ नाटक के क्षेत्र में मेरी कई उपलब्धियां हैं। मैंने अभिनय भी किया, नुक्कड़ नाटकों के सैकड़ों गीत भी लिखे, इसको लेकर मेरी एक किताब – ‘ अग्नि ध्वज’ भी आई है। मुझे इस सबके लिए सीनियर फैलोशिप भी सरकार की तरफ से मिली है। कविता के कई मर्मज्ञ मानते भी हैं कि इसके कारण भी मेरी कविता में एक अतिरिक्त धार आई है। प्रख्यात साहित्यकार डॉ रामदरश मिश्र और जानेमाने गीतकार- गज़लकार श्री बाल स्वरूप राही तक ने ऐसा कहा है।

आपने कविता लेखन कब शुरू किया? उस समय के प्रमुख कवियों के बारे में बताएं। आपका उस समय के नये कवियों में किन लोगों से परिचय कायम हुआ?

मैंने गंभीरता से तो एमए हिंदी करने के बाद ही कविताएं लिखना शुरू किया था। मैं दिनकर से बहुत प्रभावित रहा। ख़ासकर उनकी सशक्त शब्दावली और नए शब्द गढ़ने की ग़ज़ब की क्षमता से। उनकी ‘उर्वशी’ को मैंने बहुत बार पढ़ा। और उनकी ‘रश्मि रथी’ तो मुझे लगभग कंठस्थ ही थी। फिर निराला का मेरे विचारों पर काफी प्रभाव पड़ा। नई कविता के तो अनेक कवियों ने मुझे झकझोरा। मुक्तिबोध , धूमिल, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, रामदरश मिश्र, बालस्वरुप राही, दुष्यंत कुमार, निदा फ़ाज़ली, बशीर बद्र आदि एक लम्बी लिस्ट है। जब तक मेरी पहली किताब आई मेरा किसी स्थापित कवि से रूबरू परिचय नहीं था। हां, पहली किताब आने के बाद तो सैकड़ों कवि- कवयित्रियों से अब अच्छा खासा परिचय है।

क्या आप शुरू से दिल्ली में ही रह रहे हैं? यहां आपने अक्षरम संगोष्ठी पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया और आजकल क्या कर रहे हैं?

यूं हमारा गांव तो राजस्थान के अलवर जिला में ‘बहरोड़’  है, लेकिन, मैं तो दिल्ली में ही पला बढ़ा। यहीं शिक्षा दीक्षा ली। बैंक की नौकरी की। इस सबके साथ ही सामाजिक साहित्यिक काम भी किए। भाषा आंदोलन में हिस्सा भी लिया, ख़ूब नुक्कड़ नाटक भी किए। जी, एक साहित्यिक पत्रिका ‘अक्षरम संगोष्ठी’ का मैंने 12 साल तक संपादन भी किया। भारत के और प्रवासी साहित्यकारों के बीच एक सेतु के रूप में वह पत्रिका रही। इस शुद्ध साहित्यिक पत्रिका की एक समय पूरी धूम रही। अब लगभग 4 साल से वो पत्रिका बंद है। आजकल मैं प्रमुख रूप से अपनी साहित्य साधना के साथ साथ साहित्यिक गतिविधियों, कवि सम्मेलनों और साहित्यिक यात्राओं में ही समय लगाता हूं।

नुक्कड़ नाटकों को करते हुए आपने इस दृश्य कला को संप्रेषण की दृष्टि से कितना प्रभावी महसूस किया, हमारे देश में नुक्कड़ नाटक आंदोलन कमजोर क्यों पड़ता चला जा रहा है?

संप्रेषण की दृष्टि से नुक्कड़ नाटकों का कोई सानी नहीं है। यह नाटक की वह विधा है जो स्वयं चलकर दर्शकों के पास जाती है। सीधी, सरल, सहज शब्दावली में छोटे छोटे संवादों के माध्यम से कम से कम नाट्य सामग्री का प्रयोग करते हुए कलाकार अपनी बात कहते हैं। क्योंकि ये ज़्यादा लंबे और ज़्यादा तामझाम वाले नहीं होते और दर्शकों के बीच में ही बिना किसी दूरी को बनाए खेले जाते हैं, इसलिए दर्शक इससे सीधे जुड़ता है और उसकी प्रतिक्रिया से भी कलाकार रूबरू होता रहता है। जहां तक बात नुक्कड़ नाटक आंदोलन के कमज़ोर पड़ने की है, तो मैं इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखता। अरविंद गौड़ का अस्मिता थियेटर ग्रुप ख़ूब सक्रिय है। अस्मिता की ओर से अनेक वर्षों से देश के विभिन्न हिस्सों में लगातार हज़ारों शो हुए हैं। और भी अनेकानेक नुक्कड़ नाटक संस्थाएं सक्रिय हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के तीन दिवसीय नुक्कड़ नाटक उत्सव ‘मदारी’ में पिछले साल मुझे निर्णायक के तौर पर जाने का अवसर मिला था। बीसियों महाविद्यालयों की ओर से वहां के नाट्य ग्रुपों ने बड़े उत्साह से हिस्सा लिया था और उत्कृष्ट प्रस्तुतियां कीं। चुनावों के समय तो सारे राजनैतिक दल मुख्य रूप से जनपद जनपद नुक्कड़ नाटकों के जरिए अपना अपना प्रचार करते हैं। कॉर्पोरेट जगत भी अपनी कई स्कीमों के प्रचार में इनका ख़ूब प्रयोग करता है।

हमारे देश में फिल्म कला के विकास से हिंदी सिनेमा रचनात्मक धरातल पर किस बदलाव को प्रकट करता रहा है?

हिंदी सिनेमा का हमारे सामाजिक जीवन में बहुत प्रभाव है। इसकी ताक़त को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। फ़िल्म सेंसर बोर्ड का सदस्य होने के नाते अनेक फिल्मों को देखने और पास करने का मौका भी खूब मिलता है। मेरी समझ में रचनात्मक धरातल पर ख़ास बदलाव ये आया है कि अब घिसेपिटे फार्मूले से निकल कर फिल्मकार नए-नए विषयों पर भी फिल्म बनाने का रिस्क लेने लगे हैं। छोटी सी लेकिन किसी अहम घटना को लेकर भी बहुत सार्थक फ़िल्में सामने आई हैं जो लेटेस्ट तकनीक की दृष्टि से भी विदेशी फिल्मों का मुकाबला करती लगती हैं।

विदेशों में भारतीय काव्य और कला के प्रति आपने किस आकर्षण और लगाव को वहाँ के लोगों के भीतर पाया?

विदशों में भी कुछ प्रवासी रचनाकार बेहतरीन काम कर रहे हैं। बेशक ज़्यादातर कवि लेखक नॉस्टेलजिया के शिकार हैं, जो कि स्वाभाविक भी है, लेकिन इसके साथ साथ वहां प्रवास की अधुनातन समस्याएं, वहां के जीवन के नए-नए अनुभव भी कविता विषय बन रहे हैं। गिरमिटिया देशों में रहने वाले प्रवासियों और विकसित देशों में रहने वाले प्रवासियों के दुःख दर्द में अंतर भी साफ सामने आता है। भारत के प्रति उनका आकर्षण अलग अलग रूपों में व्यक्त होता है।

कविता लेखन के अलावा अन्य विधाओं में लेखन के प्रति आप उदासीन रहे ?

जी , इस बात से मैं अनभिज्ञ नहीं हूं। हालांकि मैंने साहित्यिक पत्रिका ‘अक्षरम संगोष्ठी’ के संपादक के रूप में जितने संपादकीय लिखे हैं, उनका भी शायद कभी मूल्यांकन किया जाए। अनेकानेक साहित्यकारों के साक्षात्कार भी मैंने लिए हैं। मैंने विभिन्न विषयों की सैकड़ों किताबों की समीक्षा भी की हैं और वे कई  प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में छपी भी हैं। 500 से ज़्यादा नुक्कड़ नाटक प्रस्तुतियों में अभिनय भी किया है। इस नाते मुझे ख़ुद को अभिव्यक्त करने के पर्याप्त अवसर भी मिले हैं और संतुष्टि भी।


नरेश शांडिल्य की यह कविता भी पढ़िये-

तुमने दी

आज़ाद ख़याल को सज़ा-ए-मौत

और डाल दिया उसे सींखचों के पीछे

 

एक दिन…

तुमने सोचा

जेल में पड़े-पड़े अब तक वो

हो चुका होगा पागल

नोंचता रहता होगा अपने बाल

सींखचों से टकरा-टकरा कर

तोड़ चुका होगा अपना सर

 

और एक रात…

जब तुम्हें सचमुच ही

उसकी बदहाली देखने का शौक़ चर्राया तुम भौंचक्के रह गए

उसे गहरी नींद में सोता देख कर

पहले से ज़्यादा उसके मजबूत

और चौड़ाए कंधों को देखकर

तुम घबराए-से,  सकपकाए-से

देखने लगे अपनी ही परछांई

 

तुम!

जो उड़ाने आए थे उसकी खिल्ली

चौंक पड़े

काल कोठरी की दीवारों पर

देखकर उसकी इंकिलाबी कविताएं

इतना छीन लेने के बाद भी

छीन नहीं सके तुम

उसकी अपनी आग में सिकी

आज़ाद ख़याली!

 

लानत है , लानत है

लाख लानत है तुम पर

डूब कर मर क्यों नहीं जाते तुम

चुल्लूभर आज़ाद ख़याली में?


नरेश शांडिल्य- परिचयः एक नजर

कवि, दोहाकार, शायर, नुक्कड़ नाट्यकर्मी और संपादक

हिंदी अकादमी , दिल्ली सरकार का साहित्यिक कृति सम्मान (1996), वातायन ( लंदन ) का अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान (2005) ; कविता का प्रतिष्ठित ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’ (2010) से सम्मानित।

देश-विदेश में आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में महत्वपूर्ण भागीदारी।

साहित्य की अंतरराष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका ‘अक्षरम संगोष्ठी’ का 12 वर्षों तक कुशल संपादन

सम्प्रति :

सलाहकार सदस्य: फ़िल्म सेंसर बोर्ड , सूचना व प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार। स्वतंत्र लेखन।

संपर्क : सत्य सदन, ए 5, मनसा राम पार्क, संडे बाज़ार लेन, उत्तम नगर, नई दिल्ली 110059

मोबाइल- 9711714960, 9868303565

ईमेल- nareshhindi@yahoo.com

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

राजीव कुमार झा
शिक्षक व लेखक

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