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कहीं राजनीतिक शिगूफा भर न बनकर रह जाए मिशन चंद्रयान

प्रयास करना और सफलता पाना या असफल हो रहना, यह बहुत ही सामान्य सी बात है। चंद्रयान-2 मिशन भी इसी कसौटी से गुजरा है। वह कल फिर प्रयास करेगा और सफलता के नए कीर्तिमान गढ़ेगा, लेकिन हमने इस मिशन को इन दो दिनों में आर-पार की लड़ाई बना दिया था। 5 व 6 सितंबर को दिनभर यह एक ऐसे शोर में तब्दील रहा, जैसे कोई क्रिकेट मैच हो और हार-जीत की बड़ी ही पेचीदगी से गुजर रहा हो। हमारे देश का मौजूदा निजाम और उसके आला हुक्मरान इस दौर में घटित हो रही हर एक घटना और उपलब्धि को राजनीतिक उपक्रम और कोरे राष्ट्रवाद से जोड़ रहे हैं। नतीजा यह कि जनता इस फेर में ऐसी उलझ रही है कि अन्य सामाजिक मुद्दों से उसका ध्यान बड़ी ही आसानी से हटाया जा रहा रहा है।

आलम यह रहा कि चंद्रयान-2 की सफलता पूरे दिन एक तमाशा बनी रही। इसीके बहाने पाकिस्तान को कई दफा उसकी औकात य़ाद दिला दी गई और पूरे मामले को किसी युद्ध की तरह प्रचारित किया जाता रहा। चन्द्रयान के प्रयाण के बाद सभी को इसकी सफलता का इंतज़ार था। अचानक गुरुवार को यह मसला राजनीतिक हो गया। इतना राजनीतिक कि जैसे किसी चुनाव में आजकल हर नेता विधवा विलाप कर रहा होता है। इसी के बीच एक अंतरिक्ष मिशन के जरिये कई मुद्दों को ढक दिया गया। इनमें प्रमुखता से आर्थिक और अर्थव्यस्था का मुद्दा रहा।

अरबों के एक वैज्ञानिक प्रयास को महज एक खेल की तरह दिनभर पेश किया गया। क्या इसमें भावनाओं से खेलने की बू नहीं आती। क्या यह कोई पर्दे पर चलने वाला नाटक था, कोई कठपुतली का तमाशा था। कल इसके कितने गंभीर परिणाम होंगे, इसका आकलन क्या किसी ने किया है? हमारे वैज्ञानिकों पर जनता के इन छिछले मनोभावों का कितना अतिरिक्त दबाव होगा। कल को जब वे फिर से इस तरह के प्रयास में जुटेंगे तो उन्हें अपनी नाकामयाबी का डर सताएगा। वैज्ञानिक अनुसंधानों को कभी भी इस तरह अति प्रचार की जद में नहीं लाना चाहिए। वैज्ञानिक विधि के 6 चरण (six steps of scientific method)  सभी ने पढ़े होंगे। इनमें अनुसंधान और प्रयास सबसे प्रमुख है। इसरो की एक स्वाभाविक नाकामयाबी के पीछे राजनीतिक भूल और नाकामयाबी छिपाई जा रही है।

अभी तक का सामान्य ज्ञान यह कहता है कि चांद पर पहला कदम नील आर्म स्ट्रांग ने रखा। इतिहास में यह दावा महज एक झूठ बनकर प्रचारित है। सिर्फ इसलिए, क्योंकि इस अभियान से क्या हासिल हुआ यह आज तक ज्ञात नहीं है। कल्पना चावला की मृत्यु भी संदेह की दृष्टि से देखी जाती है।

इसरो नाकामयाब नहीं हुआ, यह तो प्रक्रिया है। नाकामयाब हुआ है वह राजनीतिक तंत्र जो इसके पीछे अपनी नाकाम व्यवस्था को छिपा रहा है। आर्थिक मुद्दों से कोई अछूता नहीं है, लेकिन यह मुद्दा दब गया और चन्द्रयान जैसा महान अभियान शिगूफा बनकर रह गया है।

इसरो कल भी प्रयास करेगा, परसों भी और इसके बाद भी। सभी अभियान किसी न किसी वजह से अंजाम नहीं बन सके तो यही जनता जो आज बहुत भावुक हो रही है कल सन्देह करने लगेगी। एडिसन ने 1000 प्रयास के बाद बल्ब बनाया था। मैग्नेटिक फ़ील्ड का ज्ञान सिर्फ एक बार चुम्बक गुजारने से नहीं हो गया था। वैज्ञानिक प्रयास धैर्य की कसौटी पर खरे उतरते हैं। हमने गाहे-बगाहे इसरो को एक बॉक्सिंग रिंग में उतार दिया। इसरो, इसरो, इसरो की चीयर करती आवाज उसके लिए घातक साबित हो सकती है।

प्राचीन काल में केवल योग्य का चुनाव कर उसे ही दिव्यास्त्र की शिक्षा दी जाती थी। अश्वत्थामा में धैर्य की कमी थी, लेकिन द्रोणाचार्य ने मोहवश उसे ब्रह्मास्त्र की शिक्षा दे दी। नतीजा यह हुआ कि उसने इस घातक अस्त्र का प्रयोग निजी कुंठा में किया और उसे वापस लौटाना भी नहीं चाहता था। चंद्रयान के मिशन से सारी जनता को केवल कोरी भावनाओं के जरिये जोड़ना इसी दिव्यास्त्र की शिक्षा देने सरीखा है।

जो रोटी बहुत जल्दी फूल जाती है, सबसे तेजी से पसीजती है। आज सारा देश राजनीतिक तवे पर सिक रही रोटी की तरह है। यह तुरंत फूल जाती है। इसके पसीजने का खामियाजा कहीं इसरो को न भुगतना पड़े। जरूरी है कि ऐसी संस्थाएं अपना विश्वास बनाए रखें। बेहतर होगा कि इसरो को आर्थिक मदद दी जाए और उन्हें प्रयास में लगा रहने दिया जाए।  अनुसंधान को राजनीतिक तमाशा न बनाएं।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

विकास पोरवाल
पत्रकार और लेखक

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