-साहित्य मौर्या
संभवतः कोई भी सभ्य समाज वैसी प्रथा और क़ानून का समर्थन क़तई नहीं करेगा जहां महिलाओं के धार्मिक और शारीरिक मनोदशा को ज़ख़्मी किया जाता हो। भारतीय पितृसत्तात्मक परिवेश ने हमेशा से महिलाओं का इन मामलों में दोहन ही किया है। पुरुषों पर निर्भर रही महिला का पुरुष प्रधान समाज ने उसके मूल्यों को ज़्यादातर अस्वीकार ही किया है।
हाल ही में आइपीसी की धारा 497 और केरल के सबरीमाला मंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय ने आपत्ति जताते हुए महिलाओं के पक्ष में फ़ैसला दिया। इस फ़ैसले ने महिलाओं की सोच को और प्रगतिशील बनाने का काम किया है। महिलाओं के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला काफी अहम है जो समानता का अधिकार देता है।
क्या है मामला
केरल के सबरीमाला मंदिर में अब हर उम्र की महिलाएं मंदिर में प्रवेश कर सकेंगी। बता दें फिलहाल 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं है। इसी लैंगिक आधार पर भेदभाव पर सुप्रीम कोर्ट ने 28 सितंबर को अपना फैसला सुनाया। यह फैसला चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया।
इसी प्रकार स्त्री-पुरुष के विवाहेतर संबंधों से जुड़ी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा-497 पर 27 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अपना फैसला सुना दिया। आइपीसी की धारा 497 में व्यभिचार (अडल्टरी) से जुड़े मामले में अपराध को तय करती है। इस धारा के मुताबिक, अगर कोई व्यक्ति किसी शादीशुदा महिला के साथ शारीरिक संबंध बनाता है, तो वह व्यभिचार का अपराधी माना जाएगा फिर चाहे यह संबंध महिला की मर्जी से ही क्यों न बनाए गए हों। कोर्ट ने धारा 497 में अडल्टरी को अपराध बताने वाले प्रावधान को असंवैधानिक करार दिया। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस इंदु मल्होत्रा, जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस आरएफ नरीमन की पांच जजों की बेंच ने एकमत से यह फैसला सुनाया।
मालूम हो कि एक तरफ़ समाज महिलाओं को ‘लक्ष्मी’ का रूप मानता है तो वहीं दूसरी ओर उनकी इच्छाओं को निरंतर गला दबाता रहा है। पुरुष प्रधान व्यक्तित्व जिस प्रकार से धारा 497 के तहत पुराने क़ानून के तहत अपना वर्चस्व साबित करता आ रहा था और सबरीमाला मंदिर में लगभग आठ सौ सालों से दस से पचास वर्ष के बीच के महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी लगी हुई थी। उसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के माध्यम से महिलाओं के हित में उन्हें भी समतामूलक अधिकार दिया है। आज भी ऐसे कई मुद्धें समाज में विराज़मान हैं जिसकी अनदेखी वर्षों से चली आ रही है।
लिहाज़ा, भारतीय जनमानस जिस पवित्रता के साथ यह कहती है कि एक स्त्री का घर में आना लक्ष्मी के समान पूजनीय है तो ऐसा क्यों नहीं होता कि उन्हें पुरुषों के समान अधिकार मिल पाते। अब समय आ गया है कि धर्म-तंत्र, शारीरिक भेदभाव के मूल-मंत्र से परे हटकर महिलाओं को समानता का अधिकार देना होगा। पुरातन परंपराओं और ग़ैरबराबरी तथ्यों से निकल हमें उनके इच्छाओं के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलने की ज़रूरत है।
(यह लेखक के अपने निजी विचार हैं, फोरम4 इससे सहमत होना जरूरी नहीं है)
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