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पत्रकारों की हत्या से खड़े हुए ये अहम सवाल

शीतल चौहान

पत्रकार जब अपना धर्म निभाकर सत्य के साथ खड़ा होकर पूरी निष्ठा से काम करता है तो उसे धमकियां मिलने लगती हैं। आवाज को दबाने के लिए उनकी हत्या कर दी जाती है। इन सबके बावजूद वे अपना जान जोखिम में डालकर जनता के बीच अपनी बातों को लाने का प्रयास करते रहते हैं। आखिर इस आजाद भारत का मतलब यही है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलने की वजह से उनकी ही हत्या हो जाए जो जनता के हित में कुछ कर रहे हों। हम यहां बात कर रहें हैं उन पत्रकारों की जिनकी कलम ही उनकी मौत का कारण बन गई। हाल ही में कश्मीर में जहां आए दिन हम शहीदों की शहादत के बारे में सुनते ही हैं वहीं, बेहद काबिल वरिष्ठ पत्रकार एवं राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी और उनके पीएसओ की गुरुवार को श्रीनगर में उनके कार्यालय के बाहर अज्ञात बंदूकधारियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। बुखारी यहां प्रेस एंक्लेव स्थित अपने कार्यालय से एक इफ्तार पार्टी के लिए जा रहे थे कि तभी अज्ञात बंदूकधारियों ने उन पर हमला कर दिया। कश्मीर के लिए शुजात बुखारी एक अहम आवाज़ थे। इसके साथ ही कश्मीर के संघर्ष पर गहरा काम और शांति स्थापना के लिए उन्होंने काफी कोशिशें की थीं। एक पत्रकार के रूप में उन्होंने जो लिखा और जो कहा उसमें से ज़्यादातर हिस्सा शांति स्थापना की बात और अलग तरह से सोचने की वकालत करता था। उनकी हत्या बोलने की आज़ादी और प्रेस की आज़ादी पर भी एक हमला ही नहीं है वरन् एक संदेश भी है उन पत्रकारों के लिए जो ऐसा करने की कोशिश करते हैं। एक कड़वा सच है कि जो भी सच के लिए लड़ता है उसको या तो मार दिया जाता है या फिर मरवा दिया जाता है।

इससे पहले भी कश्मीर में कई पत्रकार बन चुके हैं निशाना

कश्मीर में पहली बड़ी हत्या 1990 में दूरदर्शन के स्टेशन डायरेक्टर लास्सा कौल की हुई थी। इसके बाद दूरदर्शन केंद्र से ख़बरों का प्रसारण कुछ समय के लिए रुक गया जोकि 1993 की गर्मियों में एक बार फिर शुरू हो सका।

इसी प्रकार अलसफा अख़बार के संपादक मोहम्मद शाबन वक़ील की साल 1991 में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इनके अलावा एक संपादक गुलाम रसूल और दूरदर्शन संवाददाता सैय्यदेन की भी हत्या कर दी गई। वर्ष 2003 में एक स्थानीय न्यूज़ एजेंसी नाफा की संपादक की प्रेस एन्क्लेव श्रीनगर में ही हत्या कर दी गई। इसी जगह पर एएनआई फोटोग्राफ़र मुश्ताक़ अली की मौत हो गई जब एक पार्सल बम बीबीसी संवाददाता यूसुफ़ जमील के पास पहुंचा था।

इन-इन पत्रकारों की कलम बनी हत्या की वजह

इन सबके पहले एक और पत्रकार की हत्या चर्चा का विषय बना रहा। गौरी लंकेश कन्नड़ की भारतीय क्रांतिकारी पत्रकार थीं। वे बंगलौर से निकलने वाली कन्नड़ साप्ताहिक पत्रिका लंकेश में संपादिका के रूप में कार्यरत थीं। पिता पी. लंकेश की लंकेश पत्रिका के साथ हीं वे साप्ताहिक गौरी लंकेश पत्रिका भी निकालती थीं। ५ सितंबर २०१७ को बंगलौर के राजराजेश्वरी नगर में उनके घर पर अज्ञात बंदूकधारियों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। उन्होंने हमेशा कट्टरपंथियों के खिलाफ आवाज़ उठाई थी।

लेखक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर अंधश्रद्धा के खिलाफ अलख जगाने वालों में से एक थे। दाभोलकर की पुणे में 20 अगस्त 2013 को गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इसी प्रकार मराठी पुस्तक शिवाजी कोण होता के लेखक गोविन्द पंसारे की भी हत्या 16 फरवरी 2015 को कर दी गई थी।

पूरा सच के संपादक पत्रकार रामचंद्र छत्रपति जिन्होंने राम-रहीम मामलें में साध्वी के साथ हुए रेप की खबर को प्रकाशित किया था, जिसके कुछ महीने बाद उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। राजदेव रंजन, कमलेश जैन, जगेन्द्र सिंह आदि भी कुछ ऐसे नाम है जिन्होंने केवल कलम चलाने का प्रयास किया और उन्हें इसके लिए जान देनी पड़ी।

भ्रष्टाचार उजागर करने से हुईं सबसे ज्यादा हत्याएं

एक प्रतिष्ठित अखबार में छपे आंकड़े के अनुसार देश में साल 1992 से अब तक 91 से अधिक पत्रकारों को मौत के घाट उतारा जा चुका है। इसमें से सिर्फ 4 प्रतिशत मामलों में ही इंसाफ मिला। 96 प्रतिशत मामलों में अपराधियों को माफी मिल गई। 23 मामलों में हत्या के पीछे छिपा मंसूबा नहीं पता चला। सिर्फ 38 मामलों में मोटिव स्पष्ट हो पाया। जिनकी मौत का कारण स्पष्ट हुआ उनमें कई को इंसाफ नहीं मिला। सबसे ज्यादा 47 प्रतिशत पत्रकारों की मौत राजनीति क्षेत्रों को कवर करने के दौरान हुई है। उसे बाद भ्रष्टाचार को उजागर करने वाल 37 प्रतिशत पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया गया। 21 प्रतिशत अपराध, 21 प्रतिशत बिजनेस व 21 प्रतिशत संस्कृति संबंधित क्षेत्रों को कवर करने वाले पत्रकारों को निशाना बनाया गया। वहीं मानवाधिकार को लेकर 18 प्रतिशत पत्रकारों की मौते हुईं।

आखिर पत्रकार कब होंगे आजाद

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो है, लेकिन कैसी स्वतंत्रता है ये कि जब एक पत्रकार सच के लिए अपनी कलम उठाता है तो उसे मार दिया जाता है। क्या मान लें कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खत्म हो चुकी है, क्योंकि आप सही मुद्दों को उठाओगे तो इसका मतलब आप खतरों से खेल रहे हैं। पत्रकारों की हत्या किसी भी लोकतांत्रिक देश पर काला धब्बा है, जिसे कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इसलिए केंद्र और राज्य सरकार का दायित्व है कि पत्रकार को एक भय रहित माहौल दे और हत्यारों की पहचान कर उनको ऐसी सजा दे कि वह दुनिया के लिए मिसाल बन सके।

 

 

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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