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कविताः अंत में तुम हम हो जाना 

नीरज सिंह

सुनो, मेरे तुम हम बन जाना

अपने ग़ुलाबी होठों की लाली

हो सके तो हमारे माथे पर छोड़ जाना

अपने हाथों की उंगलियों को

मेरे बालों में सहलाते-सहलाते कहीं खो जाने देना

हो सके तो समय से थोड़ा पहले आ जाना

मेरे तुम हम बन जाना

 

मरने से पहले कुछ घड़ी पहले आना

जैसे फूल आते हैं पौधों में

बगिया तो महक जाती हैं

कुछ दिन या यूं कहूं कुछ घण्टे

अंत मे फूल को अपने पौधों से दूर जाना ही है

कोई साथ नहीं निभाता

सबको अकेले मर जाना ही है

 

जब धीरे-धीरे सांस मेरी मुझसे जुदा होने लगे

जब आँखों की पलकें ख़ुद से

पूरी ज़िंदगी सोने के लिए बंद होने लगें

जब नशों में वो इश्क़ का लाल रक्त चलना बंद हो जाए

तुम आना ज़रूर, पर सपनों में नहीं

हकीकत में आना

क्योंकि वो सपना बताने को हम अगली सुबह ज़िन्दा रहेंगे नहीं

 

तुम आना

मिलते हैं जैसे दो मुसाफ़िर अनजानी राहों में

वैसे ही मिलना

कुछ तुम कहना कुछ हम कहेगें

अंत में हमें अपनी-अपनी राहों पर अकेले जाना ही है

मिले मुसाफ़िर की तरह, जो हमसफर न हो

वैसा पल हम दोनों पर आना ही है

 

तुम अब जा रही हो

हम देख रहें तुम्हें

ये पल बड़ा अजीब सा लग रहा

तुम रोते तो थे पर ये आँखों में मेरे नाम का आँसू

ये कब से आने लगे

तुम्हारी सासों में ख़ुद को महसूस कर रहे हैं हम

हम रोकना नहीं चाहते हैं तुम्हें

तुम आए, अंत मे तुम हम बनके जो जा रही हो

(नीरज पत्रकारिता के छात्र हैं और कविता लिखना इनका शौक रहा है)

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

3 Comments on "कविताः अंत में तुम हम हो जाना "

  1. I just love your thoughts and feelings…It’s says a lot of emotions that we can feel in our adults life …Your kavita are so amazed

  2. Nice poem and Untelling emotion of life

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