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साहित्य, महिला और मीडिया में अंतरसंबंध- वर्तमान में नारी

नारी, साहित्य और मीडिया की जब हम बात करते हैं तो हमें ऐसा लगता है जैसे इन तीनों का आपस में कोई गहरा संबंध है। नारी को समाज की पूरक है और साहित्य जो समाज का दर्पण है और रही बात मीडिया की जो वर्तमान यानी आज का दर्पण है। नारी जो आज नारी न रहकर एक विषय बन गयी है। जिसको कहीं न कहीं इस तरीके से दर्शाया जाता है। जैसे वह समाज का सबसे पिछड़ा हिस्सा हो। जिसके लिए अनेकों कविताएँ, कहानियाँ, आलोचनाएँ, नारे व वाद-विवाद आये दिन लिखे व बोले जाते हैं और आप सब साहित्य को समाज का दर्पण मानते हैं या कहते हैं। लेकिन मुझे लगता है कहीं न कहीं साहित्य इतिहास का भी दर्पण है। क्योंकि आज जितना भी इतिहास हमारे समक्ष है वह साहित्य की वजह से ही है और साहित्य को कई अलग-अलग श्रेणियों में रखकर परिभाषित किया जा सकता है। जैसे स्मृतियाँ, एकांकी, वेद, पुराण, कहानियाँ, संस्मरण, धार्मिकग्रन्थ, राजशाही लेखन, समाज-दर्शन, आलोचनाएं, अर्थशास्त्र, शोध इत्यादि सभी साहित्य का हिस्सा हैं जो साथ ही इतिहास का भी हिस्सा हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि साहित्य और इतिहास एक दूसरे के पूरक हैं।

आगे बात आती है नारी की, जहाँ तक अगर भारतीय इतिहास को देखें तो भारत में नारी की स्थिति विश्व में सबसे अधिक उन्नत अवस्था में थी और है। क्योंकि सम्पूर्ण विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ नारी का प्रथम स्थान माँ माना गया है व उसके बाद नारी को बहन का दर्जा दिया गया है। भारत को छोड़कर कहीं भी नारी को माँ का दर्जा नहीं दिया गया है। पाश्चात्य संस्कृति में नारी का स्थान पत्नी है। भारत में नारी की स्थिति विश्व के अन्य स्थानों से श्रेष्ठ थी इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है कि ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज, हार्वर्ड तथा येल विश्वविद्यालयों के द्वार महिलाओं के लिए तब भी बंद थे, जब भारत में 20 वर्ष पूर्व कलकत्ता विश्वविद्यालय में इसके द्वार महिलाओं के लिए खोल दिए गए थे। भारत में नारी देवी का रूप है जिसे विभिन्न रूपों में पूजा जाता है। भारत जहाँ नारी को जननी माना गया है।

अब बात आती है कि फिर कैसे भारत में नारी की इतनी निम्न दशा हुई और कौन उसकी इस दशा का जिम्मेदार है। क्या नारी खुद अपनी दशा की जिम्मेदार है या फिर समाज? हमें इस सवाल के अनेकों उत्तर मिलेंगे। लेकिन सभी सांत्वना तो देंगे, लेकिन सच्चाई नहीं। मेरा अपना मत है कि नारी की इस दशा के जिम्मेदार हम हैं क्योंकि हमने समय के बदलाव को स्वीकार नहीं किया और नारी को उसकी सर्वोच्च स्थिति से दूर रखा। जैसा कि हम जानते हैं कि भारत में समय-समय पर कई विदेशी आक्रमण हुए। जिन आक्रमणों के कारण भारतीय परिवेश पर गहरा असर हुआ। अपनी व अपने घर की रक्षा के लिए कई प्रथाओं का हमें निर्माण करना पड़ा। ये प्रथाएं ही बाद में चलकर कुप्रथाओं के रूप में प्रचलित हुईं, जिन्हें समय के साथ ख़त्म हो जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इन प्रथाओं की शुरुआत के कई कारण थे जिसमें से एक यह कारण था कि ये बाहरी आक्रमणकारी बड़े ही दरिंदे और क्रूर थे जो स्त्रियों पर गलत नजर डालते थे व विरोध करने वाले को मौत के घाट उतार देते थे। भारतीय सभ्यता में इसीलिए सबसे पहले पर्दा प्रथा की शुरुआत की गयी जिससे इनकी गन्दी नज़र से स्त्रियों को बचाया जा सके। दूसरी प्रथा बाल-विवाह जो इसीलिए शुरू किया गया ताकि बेटी जल्द से जल्द अपने घर यानी ससुराल चली जाये व तीसरी प्रथा सती प्रथा जिसमें स्त्री को उसके पति की मृत्यु के बाद उसी चिता पर जला दिया जाता था। ये सब उन क्रूरों की क्रूरता से बचने के लिए किया गया। लेकिन, बाद में चलकर ये प्रथाओं के रूप में प्रचलित होते गए। आज जरूरत है अगर कहीं भी ये प्रथाएं चल रही हैं तो आप इन्हें रोकें और लोगों को जागरूक करें। क्योंकि भारतीय स्त्री चरित्र को आदर्श माँ सीता चरित्र से उत्पन्न बताया गया है व सीता के चरित्र को पवित्र से पवित्रतम बताया है। सावित्री को अध्यात्मिक शक्ति तथा निर्भीकता का स्वरूप व झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को शारीरिक क्षमता तथा बल की द्योतक बताया गया है। साथ ही संघमित्रा, लीला, अहल्याबाई, मीराबाई आदि विदुषी महिलाओं की भारत महान परम्परा है। आज की नारी सब पर भारी हो है ही साथ ही पुरुषों से किसी भी क्षेत्र में कम नहीं है। बेसक वह शिक्षा हो या रोजगार। यहीं अब मीडिया की बात करें तो नारी के बिना मीडिया मानो बीन आंख का व्यक्ति जो सुन तो सकता है लेकिन देख नहीं सकता। क्योंकि नारी सौंदर्य का प्रतीक है और मीडिया में सौन्दर्य अति आवश्यक है।

क्योंकि हर खबर पर नज़र कई नज़रें करती हैं। जो नकारात्मक पहलू पर सबसे पहले अपनी नज़र रखती हैं व सकारात्मक पहलू सभी के लिए एक समान नहीं होता। आज तथ्यों पर सत्य को आंका जाना लगा है। मीडिया के क्षेत्र में स्त्री बहुत समय से अपनी भूमिका में है क्योंकि अगर कोई बात बहुत कम समय में ज्यादा लोगों तक पहुँचानी है तो महिलाओं के सिवा कोई खबर को जल्दी नहीं पहुंचा सकता। साथ में उस खबर का अलंकरण भी हो जाता है। क्योंकि जिस प्रकार अलंकार नारी की शोभा है उसी प्रकार नारी के शब्दों में अलंकार सर्वथा विद्यमान होते हैं।

नोट- प्रस्तुत लेख में लेखक के अपने निजी विचार है, किसी भी प्रकार की गलती, सहमति या असहमति की दशा के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं है।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

दीपक वार्ष्णेय
राष्ट्रीय युवा कवि, लेेखक, समीक्षक

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