विश्वविद्यालयों पर कार्यकारी परिषद् द्वारा स्वीकृत सहमति ज्ञापन (एमओयू) का दबाव
-रवींद्र गोयल
ताज़ा खबर है की मानव संसाधन मंत्रालय ने दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) समेत सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए एक बार फिर फरमान जारी किया है कि यदि भविष्य में मंत्रालय से आर्थिक मदद लेनी है तो अपने-अपने विश्वविद्यालयों की कार्यकारी परिषद् द्वारा स्वीकृत प्रस्तावित सहमति ज्ञापन (एमओयू) एक सप्ताह के भीतर भेजें। कथित रूप से इस ज्ञापन का उद्देश्य मंत्रालय द्वारा विश्वविद्यालयों को पैसा देने के लिए आधार तैयार करना है। इस ज्ञापन में विश्वविद्यालयों द्वारा यह बताया जाना है कि वो भविष्य में शुल्क वृद्धि आदि के जरिये कैसे धन इकठ्ठा करेंगी और उच्च शिक्षा निधि एजेंसी (एचईएफए) से विश्वविद्यालय में विकास के लिए कितना उधार लेना चाहती हैं।
सरकार द्वारा उच्च शिक्षा निधि एजेंसी बनाने का इरादा 2016-17 के बजट भाषण में किया गया था, जिसमें कहा गया था, “हमने 1,000 करोड़ रुपये के प्रारंभिक पूंजी आधार के साथ उच्च शिक्षा निधि एजेंसी स्थापित करने का निर्णय लिया है। एचईएफए एक गैर-लाभकारी संगठन होगा जो बाजार से धन उघायेगा और अन्य दान और सीएसआर फंड के साथ उसे और पोषित करेगा। इन राशि का उपयोग देश के शीर्ष शिक्षण संस्थानों में बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए किया जाएगा और संस्थानों के आंतरिक संसाधनों के माध्यम से उस धन को वापस किया जायेगा।”
ज्ञात हो कि वर्तमान फरमान से पहले भी इसी आशय का एक पत्र एचआरडी मंत्रालय ने इसी साल एक जून को भी विश्वविद्यालयों को भेजा था। कुछ विश्वविद्यालयों ने सहमति ज्ञापन (एमओयू भी भेज दिए थे। जानकार सूत्रों का कहना है की डीयू ने अभी कोई ज्ञापन नहीं भेजा है। लेकिन, मंत्रालय ने वो ज्ञापन, ताज़ा फरमान के साथ, विश्वविद्यालयों को इसलिए वापस भेज दिये हैं क्योंकि वो कार्यकारी परिषद् द्वारा स्वीकृत नहीं थे। कार्यकारी परिषद् की स्वीकृति विश्वविद्यालय के वायदों को शायद ज्यादा पुख्ता बनाती है।
इस फरमान में यह भी कहा गया है कि उच्च शिक्षा निधि एजेंसी (एचईएफए) से विश्वविद्यालय को मिलने वाला उधार इस पर भी निर्भर करेगा कि उपरोक्त सहमति ज्ञापन में बताये गए धन जुटाने के क़दमों में विश्वविद्यालय की प्रगति कैसी है। फरमान यह भी निर्देश देता है कि यदि कार्यकारी परिषद् की मीटिंग जल्दी बुलाना न संभव हो तो समझौता ज्ञापन को सर्कुलेशन के द्वारा पारित करवा लिया जाये, लेकिन ज्ञापन को सप्ताह भर में जरूर मंत्रालय में भेज दिया जाये।
एक बात और. अभी तो यह लग सकता है की यह सहमति ज्ञापन उच्च शिक्षा निधि एजेंसी से विश्वविद्यालय के विकास के लिए गए उधार की वापसी सुनिश्चित करने के लिए लिया जा रहा है। कई ज्ञानी जनों को, खासकर उनको जिन्हें ये लगता है कि सरकार उच्च शिक्षा का खर्चा क्यों उठाये, को इस में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लग सकता है। बेशक उन साथियों की सोच पर बहस हो सकती है। एक मज़बूत वैकल्पिक सोच यह भी है कि उच्च शिक्षा का सभी खर्चा राज्य को उठाना चाहिए। शिक्षित युवक युवती सामाजिक विकास का एक महत्वपूर्ण घटक होते हैं और उसे आगे बढ़ाना राज्य की जिम्मेवारी है। लेकिन, इस बहस को छोड़ भी दिया जाये तो यह मानने का कोई आधार नहीं है कि फीस बढ़ोतरी को यदि एक बार स्वीकार कर लिया गया तो वो बढ़ोत्तरी उच्च शिक्षा निधि एजेंसी से विश्वविद्यालय के विकास के लिए गए उधार की वापसी के बाद रोक दी जाएगी। समझने की बात यह है कि यह तो फीस बढ़ोतरी की स्वीकार्यता को बढाने का छलावा मात्र है और सभी समाज हितैषी शक्तियों को इस कदम के निहितार्थ को समझना चाहिए। यह और कुछ नहीं राज्य पोषित उच्च शिक्षा के कफ़न में अंतिम कील साबित होगा।
इस सम्बन्ध में दोस्तों को याद होगा कि दो या तीन साल पहले शिक्षक साथियों में से कुछ साथी बजट दस्तावेजों का सतही अवलोकन कर के यह कह रहे थे कि सरकार ने यूजीसी का बजट कम कर दिया है, लेकिन वास्तव में उस समय सरकार ने कॉलेज और विश्वद्यालयों को दी जाने वाली सहायता यूजीसी के बजट से अलग कर एक नए शीर्षक के तहत दिखाना शुरू कर दिया था। उस समय तो इस परिवर्तन का महत्व नहीं समझ आया था और इसे मात्र तकनीकी फेरबदल के रूप में समझाया जा रहा था। लेकिन, अब उद्देश्य साफ़ हो गया। पहले शिक्षा मंत्रालय ने कॉलेज और विश्वविद्यालयों को अलग से पैसा देना शुरू किया और अब सहमति ज्ञापन का पेच लगाया जा रहा है ताकि सरकारी वित्त पोषित उच्च शिक्षण संस्थानों में फीस बढ़ोतरी का रास्ता साफ़ किया जा सके।
दुखद है कि यह सवाल न तो शिक्षक आन्दोलन और न छात्र आन्दोलन के लिए महत्वपूर्ण है।
(लेखक डीयू के सत्यवती कॉलेज के पूर्व शिक्षक हैं। ये उनके स्वतंत्र विचार हैं, फोरम4 का सहमत होना जरूरी नहीं)
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