बक्सर, बिहार के गांव हरनाथपुर में जन्में लेखक औऱ कवि विमलेश त्रिपाठी ने फोरम4 को शानदार साक्षात्कार दिया है। वे कलकत्ता विश्वविद्यालय से केदारनाथ सिंह की कविताओं पर पीएचडी कर चुके हैं। कविता और कहानी का अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने के साथ साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था नीलांबर कोलकाता के वर्तमान अध्यक्ष भी हैं। पिछले 8-9 सालों से अनहद कोलकाता ब्लॉग का संचालन एवं संपादन कर रहे हैं। त्रिपाठी के अब तक 3 कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन सहित कई महत्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। कोलकाता में ही रहते हैं। आइए जानते हैं उनसे और उनकी किताब से जुड़ी कुछ बातें-
आप अपने शुरुआती दिनों के बारे में बताएं, कैसे आपने लिखना शुरू किया?
बचपन गाँव में बीता। एक ऐसे माहौल में जहाँ लिखने-पढ़ने की कोई भी परम्परा न थी। बाबा किसान थे और पढ़े-लिखे न थे। पिता ने इंटरमीडिएट में दाखिला तो लिया लेकिन, परिवार की परिस्थितियों के कारण रेलवे सुरक्षा बल में कॉस्टेबल हो गए। हम गाँव के एक सरकारी स्कूल में पढ़ते थे- पेड़ के नीचे बोरे बिछाकर बैठते थे। लेकिन, तब भी हिन्दी की कहानियां और कविताएँ अच्छी लगती थीं और किताबें पढ़ने की ललक रहती थी लेकिन, किताबें तो क्या अखबार भी न मिलता था। पहली बार अखबार तब घर में आया जब हम लोग कोलकाता आ गए और नवीं कक्षा पास की।
लेकिन बचपन में गीत-गवनई खूब होता था। औरतें गीत गाती थीं मर्द लोग खलिहान में मेहिनी गाते थे इसके अलावा हरिजन की बस्ती में सिनरैनी गाई जाती थी। अलावे इसके जिस एक किताब से खूब गहरा परिचय हुआ वह रामचरित मानस थी। उसकी चौपाइयाँ गाई जाती थीं। अष्टयाम होते थे और कई बार मैं भी अकेले में बैठकर जोर-जोर से रामचरित मानस का लयबद्ध पाठ करता था। कथा कहने वाले बूढ़े बाबा लोग भी थे। खासकर शिव शंकर ओझा और हमारे मास्टर जी रणजीत ओझा। गाँव में रहते हुए मैंने खूब नाच देखा– नौटंकी और मदारी के खेल देखे, बाइसकोप देखा, औरतों के साथ मिलकर गीत गाया। बाबा के साथ गवनई में सोहर गाया, फगुआ गाया, चइता गाया और काली चाचा के साथ अष्टयाम में गाँव-गाँव घूमता रहा।
अब मुझे लगता है यही सारी चीजें मेरी रचना की बुनियाद निर्मित कर रही थीं। यह बिल्कुल धीमें और चुपचाप हो रहा था जिसका न मुझे इल्म था न किसी और को।
कोलकाता आने पर टेलिविजन और सिनेमा से परिचय हुआ। सिनेमा ने भी एक तरह से मेरे लिए अनुभव की प्रचुर सामग्री दी। जहाँ न कोई पुस्तकालय था और न किताब पढ़ने की परम्परा वहाँ सिनेमा को ही हमने साहित्य की तरह देखा-पढ़ा। अलावे इसके लुगदी साहित्य से कुछ-कुछ झीना परिचय भी उन्हीं दिनों हुआ था लेकिन वह परिचय देर तक बना न रह सका।
साहित्यिक किताबों से परिचय माध्यमिक के बाद होना शुरू हुआ और एक बार किताबें जीवन के साथ जुड़ीं तो अब तक उनके साथ गहरा नाता बना हुआ है फिर भी अन्य चीजों की स्मृतियों की धरोहर भी साथ चल रही है।
हमन हैं इश्क़ मस्ताना लिखने के पहले आपने क्या-क्या लिखा? इसको लिखने का कारण क्या था?
जब मैंने कुछ भी न लिखा था और सात-आठ में पढ़ता था तब मैंने एक उपन्यास लिखना शुरू किया था – यह लुगदी साहित्य और सिनेमा से प्रेरित होकर लिखा गया उपन्यास था – मुझे याद है कि मैंने इसके लगभग नौ खण्ड लिखे थे लेकिन फिर वह छूट गया तो छूट गया – बाद के दिनों में जब मैंने वह लिखा देखा तो मुझे बड़ी हँसी आई लेकिन, एक बात जरूर कहूँगा कि उस लेखन में भी कहानीपन तो था ही। इसके बाद अचानक मेरी रूचि कविताओं और गजलों की ओर गई। लेकिन, वह लेखन भी बचपन की भावुकता से भरा हुआ है। गंभीर लेखन की शूरुआत इस सदी के शुरू में हुई जब मुझे अनुवादक की नौकरी मिली और पहली कविता मुझे जो पसंद आई उसका शीर्षक बसंत था। बाद में वह कविता वसुधा में छपी और मेरे पहले संग्रह – हम बचे रहेंगे- में शामिल भी हुई। हमन हैं इश्क मस्ताना के पहले मेरा एक उपन्यास और एक कहानी संग्रह ज्ञानपीठ से छप चुका था– चार कविता संग्रह और एक आलोचना की किताब विभिन्न प्रकाशनों से छप चुके थे।
कहते हैं कवि और लेखक का जन्म ही पीड़ा से होता है। आपके जीवन में भी क्या उतार चढ़ाव आए?
कोई भी आदमी ऐसा न होगा जिसके जीवन में पीड़ा या दुख न हो लेकिन, यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम उस पीड़ा का क्या बनाते हैं – दुख मेरे लिए हमेशा से एक उद्दीपक का कार्य करता रहा है इसी कारण मैंने कहीं लिखा है कि – मेरे लिए दुख ही ईश्वर की तरह है।
एक पाठक के तौर पर किसी किताब को पलटने से पहले उसका शीर्षक हमें आकर्षित करता है ऐसे में आपकी किताब का शीर्षक हमन है इश्क मस्ताना के पीछे का जिक्र जानना चाहूंगा…?
आज से दस साल पहले की बात है जब मैंने इसी शीर्षक से एक कहानी लिखने की बात सोची थी – लिखना शुरू भी कर दिया था लेकिन वह कहानी अधूरी छूट गई। लेकिन, वह शीर्षक मेरे जेहन में बराबर बना रहा – और जब मैंने उपन्यास लिखा तो वह शीर्षक इस उपन्यास के बिल्कुल करीब लगा इसलिए प्रकाशक के कहने के बावजूद मैंने यह नाम न बदला और इसी रूप में किताब आपके सामने मौजूद है। कबीर की गजलनुमा पंक्तियों के बीच से इसे चुना गया है अगर पूरी गजल पढ़ी जाए तो पता लगेगा कि यह शीर्षक उपन्यास के लिए कितना उपयुक्त है।
क्या प्रेम जीवन में सिर्फ कष्ट ही देता है या फिर ये जीवन को संवारता भी है?
प्रेम अगर सही मायने में प्रेम है तो वह सँवारता ही है – अगर प्रेम नष्ट करता है तो वह और चाहे जो कुछ हो प्रेम नहीं है। प्रेम में पीड़ा का भी एक संदर्भ होता है – प्रेमी प्रेम में दुख या विछोह को भी आनंद की तरह जब ग्रहण करने लग जाए तो उसे प्रेम की पराकाष्ठा मान लेना चाहिए। घनानंद हमारे यहाँ एक ऐसे ही प्रेमी के रूप में सामने आते हैं।
इंसान जो महसूस करता है वही लिखता है तो आपके इस उपन्यास का आपकी जिंदगी से कितना जुड़ाव है?
इस उपन्यास में मेरे निजी जीवन के अनुभव तो हैं ही और लोगों के अनुभव भी जुड़े हुए हैं। बतौर रचनाकार अगर बहुत इमानदारी से कहूँ तो इस उपन्यास में चालीस फीसद कहीं न कहीं मैं हूँ– कुछ पात्र हैं जो मेरे आस-पास के ही हैं लेकिन, संदर्भ और घटनाएँ उपन्यास की कथा के अनुरूप ही गढ़े गए हैं।
आपके उपन्यास को पढते हुए लगा कि ये पुरुष सशक्तीकरण की तरफ भी ध्यान दिलाती है…कितनी सच्चाई है।
देखिए, उपन्यास प्रथम पाठ में यह संकेत दे सकता है कि यहाँ स्त्रियों से प्रताड़ित एक पुरूष को विशेष तरजीह दी गई है लेकिन, बहुत ध्यान से देखने पर यह उपन्यास स्त्रियों की समस्यों को भी बहुत चुप तरीके से उठाता है। इस उपन्यास में शिवांगी एक बहुत साहसी और सुलझी हुई महिला के रूप में सामने आती है– शिवांगी का चरित्र हिन्दी कथा साहित्य में अकेला और अनूठा है।
क्या प्रेम की एक्सपाइरी डेट होती है…जैसा आपकी किताब में दिख रहा है, आपकी पत्नी से प्रेम खत्म हो गया, जबकि कभी आप उसके बिना जी नहीं सकते थे
उपन्यास को ध्यान से पढ़िये तब पता चलेगा कि दरअसल प्रेम खत्म नहीं हुआ है, हाँ उसका रूप जरूर बदल गया है– मान लीजिए अमरेश अगर अनुजा के प्रेम में न होता तो वह इतनी तकलीफ झेलता ही क्यों? मनुष्य हर समय अपने लिए साँस लेने भर की जगह तलाशता है – अगर अमरेश और अनुजा का प्रेम इस अवस्था में पहुँच गया है कि अंततः संबंध विच्छेद ही एक उपाय है तो ऐसे में अमरेश अपने लिए जीने लायक जगहों की तलाश में भटकता है – अवश्य ही सोशल मीडिया की नकारात्मकता की वजह से वह घोर निराशा की दुनिया में पहुँच जाता है। यह जरूर है कि अनुजा उपन्यास में मौन है और बहुत कम मुखर है लेकिन, उसके मौन को बेधना पाठक का काम है और पाठक तिलमिला कर वहाँ तक पहुँचने की कोशिश भी करता है। और यही उपन्यास की सफलता भी है।
हिंदी उपन्यास जो आजकल लिखे जा रहे हैं जैसा कि आपके किताब में देखा जा सकता है कि बोलचाल की भाषा ही प्रयोग किया जा रहा है वो भी अंग्रेजी के शब्दों का अधिक इस्तेमाल ऐसा शब्दों की कमीं कहेंगे या फिर पाठक को केवल आकर्षित करने का प्रयास
बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल कोई बुरी बात नहीं है लेकिन, देखना यह होगा कि इस भाषा का उपयोग कर आप लिख क्या रहे हैं – प्रेमचंद की भाषा तो बिल्कुल बोलचाल की भाषा है लेकिन फिर भी वे कथा सम्राट हैं। बात यह है कि बहुत शिष्ट भाषा में भी लुगदी साहित्य लिखा जा सकता है और और साधारण भाषा में भी क्लासिक लिखे जा सकते हैं बल्कि लिखे गए हैं। रही बात अंग्रेजी की तो जानबूझकर अंग्रेजी शब्दों को भाषा में ठूँसना गलत है – अंग्रेजी शब्द अगर बोल चाल में स्वीकृत हैं और सहज प्रवाह में आते हैं तो इसे गलत नहीं माना जाना चाहिए।
आपकी कोई और पुस्तक भी आ रही है, जिस पर आप काम कर रहे हैं। आजकल आप किस चीज पर ज्यादा समय देते हैं?
एक उपन्यास पर काम कर रहा हूँ और बहुत जल्दी वह पाठकों तक पहुँचेगा। इसके अलावा कविताएँ तो लिख ही रहा हूँ, कविता मेरे लिए पहले प्यार की तरह है। चर्चित कविताओं का एक चयन बहुत जल्दी ही पाठकों को पढ़ने को मिलेगा।
आप पाठकों को क्या संदेश देना चाहते हैं ?
पढ़ते हुए अपने विवेक को साथ रखें। कम भले पढ़ें लेकिन, अच्छा पढ़ें। साहित्य और संस्कृति के मसले कविता और साहित्य के पास आकर ही हल हो सकेंगे।
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