-निलेश शर्मा
मैं हर उस जगह पर होना चाहता हूं जहाँ मुझे होना चाहिए, जैसे उस घड़ी की तरफ जो भागता रहता है सबकी कलाईयों में बंधकर, उन बातों में जब वो दोनों लड़कियां कान में एक दूसरे से कुछ कह कर खिलखिला कर हँसती हैं और भीड़ देखकर डर जाती हैं।
मैं देखता हूं उन आँखों में बसी उम्मीद को जो कागज के चंद टुकड़ों के लिए खुद से लड़ता रहता है। ढेर सारी आँखे हैं मेरी।
आज भी मैं कुछ देख रहा था चुपचाप उन लोगों को जो एक साथ एक जगह पर इकट्ठा होते हैं हर दिन।
आज मैंने अपनी आँखें उस कैमरे में लगा दी है जो उस फैक्ट्री में चुपचाप हर पल सबको निहारता रहता है।
वो सब कतारों में लगी थीं और बोतल पर लगातार हाथ चला रही थीं, मशीन उनसे तेज है वो बोतल को जल्दी भर देता है और थकता भी नहीं।
बहुत सी आँखे हैं उस ओर।
जब उसका दुपट्टा सरकता है, दूर खड़े आदमी को सुकून मिलता है।
उसकी बड़ी-बड़ी दाढ़ी और लंबी मूंछ है।
लोग कहते है उसके पास ढेर सारा पैसा भी है।
वो दुपट्टे को नहीं हटा पाती क्योंकि एक तरफ मशीन की रफ्तार है और दूसरी तरफ आँख।
आज उसे कुछ दर्द भी था, हमेशा होने वाला, पर ये दर्द बस वो अपनी चाची को बता सकती थी जिसने उसे काम पर लगवाया था।
वो छुट्टी मांगती है मूँछ वाले से।
मूंछ वाले मर्द होते हैं
पर सब कहते है मर्द को दर्द नहीं होता।
जैसे पापा को दर्द नहीं हुआ था जब उन्हें रास्ते में मारा गया था। वो नहीं रोए थे।
हाँ उन्होंने बताया था कि उनको दर्द नहीं हुआ था। उसने भी अपना दर्द छुपा लिया।
मूंछ वाले का हाथ उसके कंधे पर था। वो कुछ समझा भी रहा था।
शायद मशीनों के बारे में, पर उसका हाथ भारी था।
उसने छुट्टी देने का वादा किया।
उसे उस लड़के का वादा याद आ गया जिसने उससे शादी करने को कहा था और एक दिन अदृश्य हो गया।
उसने कहा वो छुट्टी भी देगा और पैसे भी और मूछों पर ताव दिया।
चाची ने बताया उसको भी वो वैसे देता है और भला आदमी है।
पापा ने समझाया था भला कोई नहीं होता, फिर वो बांस की डंडियों पर लेट गए थे।
हाँ बांस बहुत जल्दी बढ़ता है, उसने स्कूल में पढ़ा था।
वो कहता है कि कमरे में जाओ और कागज पर अपना नाम लिखो।
कागज पर नाम वो पूरा नहीं लिख पाती पर उसका शरीर उसके हांथो में पूरा आ जाता है।
दर्द था उसे बेइंतहां और कमरे में सन्नाटा। उसने वो सन्नाटा उसमे मुंह पर फैला दिया।
अब उसकी चीख उसके हांथों से होते हुए कांच की खिड़की पर जा टकराई पर कांच को भेद ना सकी।
अब दरवाजे के बाहर उसके पास छुट्टी थी, कागज के टुकड़े और अनगिनत दर्द
वो ऊपर देख रही थी उस कैमरे में जिनमे मेरी आँखें लगी थी।
चाची मुस्कुराई और मर्द ने फिर मूछों पर ताव दिया।
वो बेजान थी
पापा सही थे
ऊपर लगी आँखे निर्जीव थीं
और दीवाल पर लगी फोटो में कोई भगवान या खुदा नहीं था, वो एक मनगढ़ंत चित्र और महज़ कल्पना था.
बस सामने खड़ा शैतान वास्तविक था।
Well written brother
Bhut hi Shandar lekhan hai bhai