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वैश्वीकरण व साम्राज्यवादः विमर्श मुद्दों पर

तस्वीरः गूगल साभार

जैसा कि हम जानते हैं वैश्वीकरण यानी विश्व का एकीकरण। आज हम सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से एक डोर में बंध चुके हैं, जिससे कहीं न कहीं इन आयामों का दायरा तो बढ़ा ही है लेकिन, साथ ही कुछ पर ख़त्म होने का खतरा भी मंडरा रहा है।

आज सोशल मीडिया के हमारे पास इतने साधन मौजूद हैं जिससे हम पल भर में विश्व के किसी भी कोने की खबर ले सकते हैं व कहीं भी पल भर में संपर्क कर सकते हैं। आज विश्व की विभिन्न वस्तुएँ हमें लगभग सभी जगह उपलब्ध हो जाती हैं, जिसमें सबसे प्रमुख हम कोकाकोला व पेप्सी का उदाहरण ले सकते हैं। इसके अलावा मोबाइल आज ऐसी वस्तु है जो केवल मोबाइल न रहकर एक आल इन वन सुविधा प्रदान करता है। इससे हम बातों के साथ, टीवी देखना, किसी को कुछ डाटा, डॉक्यूमेंट भेजना, कुछ मंगाना, कुछ सीखना, कुछ सिखाना, किसी जगह को ढूँढना, टॉर्च की तरह इस्तमाल करना, रेडियो के रूप में प्रयोग, घड़ी के रूप में प्रयोग, किसी को पैसे का लेन-देन करना आदि सभी दैनिक जरूरतों के लिए हम इसका प्रयोग कर सकते हैं।

मोबाइल एक निम्न कीमत से लेकर एक अच्छी खासी कीमत तक बाज़ार में उपलब्ध हैं व विभिन्न देशी-विदेशी कम्पनियां इनका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार करती हैं। इससे हम अपनी सहूलियत के हिसाब से किसी भी कंपनी का व किसी भी देश का मोबाइल खरीद सकते हैं। यही है वैश्वीकरण जहां न कोई रोक नहीं है। आप कहीं भी कभी भी आ जा सकते हैं, जिसके लिए आप पूर्णतः स्वतंत्र हैं।

भारत में वैश्वीकरण यूँ तो बहुत पहले आ चुका था लेकिन, विधिवत रूप से इसका आगमन भारत में सन् 1991 में हुआ। जब भारत ने अपने सभी द्वार खोल दिए और खुले व्यापार की नीति को अपनाया। इससे भारत में विभिन्न राष्ट्रों की कम्पनियों का आगमन हुआ। इन्होंने एक तरफ भारत में रोजगार को तो जन्म दिया लेकिन, साथ ही एक बहुत बड़ी मात्रा में भारत का पैसा बाहर पहुँचा। हमारा देश जहाँ तकनीक की कमी के कारण वस्तुओं के निर्माण में लागत मूल्य अधिक होता था और इसी वजह से हमारी वस्तुएँ बाज़ार में महँगी थी वहीं दूसरी ओर विदेशों में तकनीक होने के कारण विदेशी वस्तुएँ सस्ती व आकर्षक थी, जिस कारण हमारी वस्तुएँ उनसे व्यापार में मुकाबला नहीं कर पायीं और विदेशी व्यापार एक बहुत बड़े स्तर पर भारत में जम गया।

इसका एक अन्य कारण यह था कि भारत की अधिकतम आबादी गरीब व मध्यम वर्ग से सम्बंधित थी जिसकी आय सीमित या कम थी जिस कारण उनका रुझान सस्ती व आकर्षक वस्तुओं पर जल्दी पड़ता था और विदेशी व्यापार को बाज़ार चाहिए था और हमें सस्ता सामान जो विदेशी कम्पनियों ने भारत में बेचा और जिस कारण ज्यादातर भारतीय कंपनियाँ दिवालिया हो गईं। अगर हम लगभग 200-250 साल पीछे जाएँ तो हम देखेंगे कि ईस्ट इंडिया कंपनियों का आगमन भारत में व्यापार के लिए हुआ था लेकिन, धीरे-धीरे उन्होंने व्यापार के साथ अपनी सत्ता को जमाना भी शुरू कर दिया।

इसका परिणाम यह हुआ कि हम कुछ ही दिनों में उनके ग्राहक से गुलाम बन गए। आज भी लगभग वैसा ही हो रहा है कुछ कम्पनियाँ सस्ता बेच-बेच कर हमें अपनी ओर आकर्षित कर रही हैं और हम भी उनके लोकलुभावान में आसानी से फंसते चले जा रहे हैं जिससे उनका व्यापार पर एकाधिकार स्थापित होता जा रहा है और बाज़ार में प्रतिस्पर्धा में कोई उनके आस-पास भी नहीं है। ये कहीं न कहीं वैश्विकारण नहीं साम्राज्यवाद है जो निरंतर हमें अपनी चपेट में लेता जा रहा है और हम सस्ते के लालच में इनके जाल में फंसते चले जा रहे हैं। आज हमें सोचने की जरूरत है और जागरूक होने की, जिससे हम इनके फैलाये मायाजाल से बच पायें नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब हम दुबारा उपनिवेश बन जायेंगे और हमारी आज़ादी हम से छिन जाएगी। पहले टीवी पर एक ब्रेक आता था ‘जागो ग्राहक जागो’ अब वो भी इनके कब्जे में है इसलिए आपको जगाने कोई नहीं आने वाला और आप ये कभी मत भूलना ‘सस्ता रोए बार-बार – महँगा रोए बार-बार।

मैं ये नहीं कह रहा की आप विदेशी वस्तुओं के उपयोग को पूर्णतः छोड़ दो लेकिन इतना जरूर कहूँगा जरा उनका भी ख्याल रखों जो आपके लिए टिकाऊ और मजबूत स्वदेशी चीज़ बनाते हैं। क्योंकि अगर वो कारीगर नहीं रहे तो शायद भारत के हाथ फिर से कट जायेंगे और भारत भी दूसरों पर निर्भर हो जायेगा। इसलिए वैश्वीकरण को बढ़ावा मिले अच्छा है लेकिन, साम्राज्यवाद को बढ़ावा मिले ये अच्छा नहीं है। क्योंकि पहले भी इसकी स्थापना ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के आधार पर हुई थी। अब भी यही नीति अपनाई जा रही है, जिसमें मिठाइयों, कपड़ों, भाषाओं को भी इन वैश्विक व्यापारियों ने धर्म, जाति, समुदाय आदि के नाम पर बाँट दिया है और अगर ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब कई और टुकड़े हमें हमारे देश के देखने को मिलेंगे। अगर आप ये कहें की भारत में एकता बिलकुल समाप्त हो गयी है तो आप बिलकुल गलत हैं आज भी बसों, रेलगाड़ियों व अन्य सार्वजनिक वाहनों में विभिन्न अलग-अलग लोग एक साथ सफ़र करते हैं वो भी बिना भेदभाव के। क्योंकि जहां एकता नहीं होती वहां कोई भी वस्तु सार्वजनिक नहीं होती।

(नोटः प्रस्तुत लेख में लेखक के निजी विचार हैं। इससे फोरम4 का सहमत होना जरूरी नहीं।)

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

दीपक वार्ष्णेय
राष्ट्रीय युवा कवि, लेेखक, समीक्षक

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