यह सृष्टि केवल और केवल प्रकृति के कारण ही साश्वत है। हम आप तो जानते ही हैं कि इस प्रकृति में स्त्री समाहित है। स्त्री की अस्थि और मज्जा से ही हमारा अर्थात् पुरुष का निर्माण हुआ है। पुरुष अपने अहं और दंभ के चलते प्रकृति को कैद करना चाहता है। प्रकृति पर शासन स्थापित करना चाहता है। इस शासन को बनाये रखने के लिये पुरुष एक वैचारिकी का प्रवाह करता है, जो पितृसत्तात्मक विचारधारा के रूप में दिखलायी पड़ती है। यही विचारधारा सदा सर्वदा के लिये स्त्रियों को अपने कैद में ले लेता है। यह स्त्रियों में एक अनजाना भय भर देता है साथ ही साथ उत्तरदायित्व का भी हर क्षण बोध कराता रहता है। इसके परिणामस्वरूप स्त्रियाँ चाहकर भी पुरुष द्वारा निर्मित वृत्त की परिधि को पार नही कर पाती हैं, स्त्रियों द्वारा जिस क्षण पुरुषों को अपना संरक्षक एवं मार्गदर्शक स्वीकार कर लिया जाता है उसी क्षण ही पुरुष उनका शोषण प्रारंभ कर देता है।
भारत में वैदिक काल में स्त्रियों की दशा अत्यंत गरिमापूर्ण थी। पुरुष के समान समादृत एवं विदुषी थी। भक्ति काल में भी स्त्रियां सम्मान की दृष्टि से देखी जाती थी। कालांतर में जब मुगल साम्राज्य की भारत में स्थापना हुई तब से लेकर औपनिवेशिक काल एवं आधुनिक काल तक स्त्रियों की दशा में अत्यंत ह्रास आया है। स्त्रियों की दशा का स्पष्ट विवेचन भारतीय हिंदी साहित्य में दिखलायी पड़ता है। साहित्यकारों ने स्पष्ट लिखा है कि “स्त्रियाँ विरोधाभासों में जीती हैं।” उनके ऊपर यह पुरुषवादी समाज उपयोगितावादी, आत्मकेंद्रित, मिथ्याचारिणी और नाटकीय जैसे हजारों आक्षेप लगाता है। अल्का सरावगी ने अपने उपन्यास “कलि कथा बाईपास” में स्त्रियों की स्वतंत्रता पूर्व की गयी उपेक्षा एवं उन पर लगाये गये प्रतिबंधों का एक शब्दचित्र खींचा है जिसमें हाथरस का उदाहरण देते हुये बताया है कि स्त्रियाँ घूंघट में रहती थीं और पड़ोसी के घरों में छतों के रास्ते जाया करती थीं। छत मानो सड़क हो गये हों।
हिंदी साहित्य समाज एवं परिवार की मनोदशा का भी स्पष्ट शब्द चित्र प्रस्तुत करता है। उषा प्रियंवदा ने अपनी उपन्यास “पचपन खंभे लाल दीवार” में यह बतलाती हैं कि एक कमाऊं पुत्री का विवाह पिता इसलिये नहीं करता है कि उसका और परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा। वह पुत्री तो संकोच के कारण अंदर ही अंदर परेशान रहती है। भीष्म साहनी ने भी अपने अपने कहानियों एवं नाटकों में भी जो कथावस्तु प्रस्तुत किया है वह आज के समाज में सरोगेसी के रूप में दिखलायी पड़ रही है। यह कितनी बड़ी बिडंबना है कि किराये की कोख के रूप में प्राप्त संपदा पर भी स्त्री का अपना कोईहक नही होता है।
हिंदी साहित्य में पाश्चात्य चिंतकों के भी तर्कों को भी स्वीकारते हुये कथा साहित्य का निर्माण किया गया है। मेरी वोल्स्टोन क्राफ्ट कहती हैं कि प्रेम समानता के मूल्यों पर टिका होता है, किंतु क्या पुरुष समानता करता है, के तर्कों को हिंदी साहित्य में नायिकाओं के माध्यम से उद्घोष कराया गया है। नायिकायें कहती हैं कि “बिना चेतनशील हुये मुक्ति संभव नहीं है।” विवेकी राय अपने उपन्यासों में स्त्री दशा को उद्घाटित किया है, जिसमें दहेज के विरूद्ध जन एवं नारी शक्ति का समन्वय किया है। यहां विवेकी राय की पात्र जयन्तिया का यह कथन उल्लेख करना समीचीन होगा कि “याद रखो कि तुम्हारी क्रांति पूर्ण तब होगी जब मै तुम्हारे साथ चलूंगी।” यह स्पष्ट है होता है कि समाज निर्माण में स्त्रियों की भूमिका बराबरी का है।
कौशल्या बैसंत्री ने जहां दलित स्त्रियों की दशा को हिंदी साहित्य के माध्यम से वर्णित किया है, वहीं शरद सिंह जैसे साहित्यकार ने बेड़ियां जनजाति की स्त्रियों की सामाजिक प्रस्थिति का वर्णन किया है। शरद सिंह ने कितना यथार्थ लिखा है उतना तो समाज वैज्ञानिक भी न लिख पाता। शरद सिंह लिखते हैं कि “औरत बस पानी की तरह है जिसे न धरती चुनने का अधिकार है न ही प्यास बुझाने का।”
स्त्रियों की दशा भारत में अत्यंत चिंताजनक रही है। 1931 के जनगणना के अनुसार भारत में 10 फीसद विधवाएं 1 वर्ष की आयु या कम आयु की रहीं। कितनी घोर बिडंबना है। आज आजादी के कितने दशक हो गये उसके बावजूद भी दहेज एवं बाल विवाह जैसी कुरीतियां तथा यौनिक शोषण का अंत नहीं हो सका है। आज भी पुरुष अपने को स्त्रियों की योनि एवं प्रजनन का पहरेदार समझता है। वह समय अब कब आयेगा जब स्त्रियाँ अपने देह की स्वयं मालिक होंगी तथा देह को संपत्ति की अवधारणा से बाहर रखा जायेगा?
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