लोकसभा चुनाव 2019 का बिगुल बीते 10 मार्च को बज गया है। सभी पार्टियां अपने उम्मीदवारों की घोषणा करने में जुटी हैं। शायद ही किसी को ध्यान हो कि लोकतंत्र के इस महोत्सव में बहुत बड़े आर्थिक हिस्से की बलि हो जाती है। अनुमान है कि इस बार 71 हजार करोड़ रुपये से अधिक का खर्च 16वीं लोकसभा के गठन में आयेगा जो 2014 की तुलना में ठीक दोगुना है।
ऐसा माना जा रहा है कि भारत के इतिहास में और दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश के सबसे खर्चीले चुनाव में से 2019 का चुनाव होगा। सेंटर फॉर मीडिया स्टडी के अध्ययन के अनुसार 1996 में लोकसभा के चुनाव में 25 सौ करोड़ रुपये खर्च हुए थे। साल 2009 में यह रकम चार गुना बढ़कर 10 हजार करोड़ हो गई। हालांकि इसमें वोटरों को गैर-कानूनी तरीके से दिया गया कैश भी शामिल है। दो दशक के भीतर अब यह सात गुने से अधिक का खर्च बन गया है जो 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति की चुनाव का ठीक डेढ़ गुना है।
लोकसभा चुनाव-2019: भारत में बेरोजगारी के आंकड़ों का पर्दाफाश, चौकिएगा नहीं
हिंदुस्तान का दुर्भाग्य है कि जिस देश में आधी से अधिक आबादी गरीबी और बेरोजगारी से गुजर रहा है, उस देश के सिर्फ एक चुनाव में तक़रीबन 710 अरब रुपया खर्च हो जाता है।
आज देश की हर एक राजनीतिक पार्टियां चुनाव पूर्व धन को लेकर प्रसार-प्रचार करती रहती है कि हमारे पास पैसा नहीं है और चुनाव के लिए हम घर-घर चंदा मांगेंगे। लेकिन, जैसे ही चुनाव पास आता है सभी राजनीतिक दलों के पास चुनाव प्रसार-प्रचार के लिए करोड़ों-अरबों रुपये आ जाते हैं।
इन सत्तर सालों में अगर चुनावी समीकरण किसी ने बदला है, तो उसका सीधा सा उत्तर है, किसी भी नेता के पास अथाह पैसा होना। वो अपने धन-बल और बाहुबली से जनता को इस कदर प्रभावित करता है कि आम जनता बेबस हो के उसी के पक्ष में हो लेता है।
जिस तेजी से आम चुनावों का परिदृश्य बदला है उसका सबसे बड़ा उदहारण कालाधन ही रहा है। अमूमन देखा गया है कि चुनाव पूर्व नामांकन पत्र भरने से पहले कोई भी नेता जब अपने धन का जानकारी देता है वो सभी को आश्चर्य में डाल देता है। इससे हम अंदाजा खुद लगा सकते है कि मौजूदा समय में किस कदर पैसे का बोल-बाला है।
लिहाजा, हमें ज़रूरत है कि हम सभी राजनीतिक दलों से मांग करें कि किसी भी चुनाव को धन-बल से भयभीत ना करें। हमें ज़रूरत है कि चुनावों में बेहतर देश, बेहतर रोजगार, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दें पर चुनाव की नींव रखी जाए। राजनीतिक दलों से अधिक आम जनता को सचेत रहने की ज़रूरत है कि क्या वो निष्पक्ष चुनाव की तरफ रुख रखते हैं या किसी विशेष बाहुबली नेता या राजनितिक पार्टियों की तरफ।
एक समृद्ध राष्ट्र की परिकल्पना तभी संभव है जब सभी पार्टियां निष्पक्ष होकर देश के सभी चुनाव में भाग लें। अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब सभी कमजोर और गरीब लोगों की पुकार को सीमित कर दिया जाएगा।
जब देश की अर्थव्यस्था बहुत चमकती सी नहीं हो, बेरोजगारी के आकड़े बेचैन कर रहे हों, सीमाई खतरे बढ़े हुए हैं, उस समय भी हमें चुनाव पर साढ़े तीन अरब रूपये से ज्यादा खर्च करने पड़ रहे हैं? क्या इस खर्च को एक फीसद भी कम नहीं किया जा सकता कि जिससे आम जनता को ख़ुशी हो की राजनीतिक पार्टियां कुछ तो समझदार हैं या फिर एक फीसद कम करने की कोशिश की गई? इन सारे सवालों पर हम किसी जबाब का इंतज़ार करें या मान लें कि इस चुनाव में इन मुद्दों को भुना दिया जाएगा।
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