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जब-जब मैं लिखती हूँ कविताएं

तस्वीरः गूगल साभार

जब-जब मैं लिखती हूँ

कविताएं

मैं…मैं हो जाती हूँ।

मुझमें बाकी नहीं रहती

वो सुबह की अधखुली नींद

और…जबरदस्ती का सँवरना

फॉर्मल दिखने के नाम पर

अपने ही आप को

छुपा देने की कवायदें

घड़ी की सुईयों सा टिक-टिक-टिक

दिनभर मन का

एक ही गोलार्ध में घूमते रहना

 

न ही कविताएं करती हैं मुझे

धूमिल…उस गर्द से जो

फाइलों को उठाते, झाड़ते

सम्भालते…

मेरे सपनों पर ढक गयी हैं।

 

मैं…अपनी कविता मैं

मैं होती हूँ।

खूबसूरत….ज़िंदा लड़की

जिसे पसन्द है सजना

जो अपने उलझे बालों से

उतना ही परेशान रहती है

जैसे माँ की साड़ी को लिपटा

कर हुआ करती थी खेल-खेल में

जिसे तितलियां पकड़ना

अब भी उतना ही पसन्द है

जितना नन्हें कदमों से

बारिश में थिरकना…

 

मेरी कविताएं…

वफादार रहती है मुझसे

मेरी थकी हुई आँखों से

सारा खारा पानी निचोड़

लेती हैं और…

बदल देती हैं उसे स्याही में

 

और जब-जब मैं रुकती हूँ

थकी हुई प्रतीत होती हूँ

ये मुझे बतलाती है कालचक्र

जिसमें मैं…हूँ और

रहूंगी…जन्म से मृत्यु तक

मेरे सिरहाने पर

देर तक करती है मुझसे

कई कई बातें…

मेरी कविताएं

– पूजा कश्यप

(लेखिका दिल्ली में एक्सिस बैंक में कार्यरत हैं) 

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

1 Comment on "जब-जब मैं लिखती हूँ कविताएं"

  1. बहुत सुंदर

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