-पूजा श्रीवास्तव
मुज़फ्फरपुर, कुछ दिनों से सुर्खियों में है। लीची के मिठास के लिए मशहूर शहर इनदिनों गुस्से और निराशा का गढ़ बन गया है, जिसकी आग बिहार की राजधानी पटना तथा अन्य जिलों जैसे गया, आरा, जहानाबाद आदि में भी फैल गयी है। जी हां, बात बालिका गृह कांड की ही है, जिसके कारण आज यानी गुरुवार को वामपंथी दलों द्वारा विरोध ने बिहार बंद का रूप ले लिया। बिहार के मुजफ्फरपुर के एक शेल्टर होम में 34 लड़कियों का कथित दुष्कर्म किया गया है।
आखिर क्या है मामला, एक नज़र पूरे वारदात पर
मामले की औपचारिक शुरुआत तो टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस के एक ऑडिट रिपोर्ट से माना जा सकता है जोकि समाज कल्याण विभाग को फ़रवरी में ही सौपा गया था। उस रिपोर्ट में बताया गया था क़ि बालिका गृह में लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार होता है। मई में रिपोर्ट समाज कल्याण विभाग के निदेशक के पास पहुँचा और बालिका गृह की लड़कियों को पटना के अन्य शेल्टर होम में भेज दिया गया। 2 जून को मुजफ्फरपुर बालिका गृह को सील कर दिया गया तथा पूछताछ शुरू की गयी। गृह के संरक्षक, जिला के बाल संरक्षक संग अन्य लोग गिरफ्तार किये गए।
मामला मीडिया में छा गया। बयानबाजी होने लगी। कोर्ट में जांच की मांग के बाद रेप की पुष्टि हुई। जुलाई तक मामले की तह तक पहुंचने की कोशिश की गयी। विपक्ष ने सीबीआई जांच की मांग की और अब सीबीआई ने आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया है।
मामला इतना सा नहीं है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिय़ा, जिसमें मीडिया को फटकार भी लगी। सुप्रीम कोर्ट ने पीड़ितों की मोरफेड तस्वीर चलाने पर रोक लगाया है।
दुष्कर्म के नाम पर खाली सियासत ही कर रहे हैं नेताजी, संवेदनहीन होता जा रहा है समाज
बात सच में बहुत गंभीर तथा संवेदनशील है। किसी भी समाज के लिए यह डूब मरने जैसी स्थिति है जहाँ लड़कियों के साथ ऐसा हुआ। पर सवाल यह है कि ऐसा क्यों हुआ? बालिका गृह शहर का एकांत कोना तो बिलकुल भी नहीं है। आसपास घर हैं, ‘प्रातः कमल’ नामक अख़बार का दफ्तर है। बालिका गृह दो या तीन साल पुरानी संस्था भी नहीं है। जी नहीं मेरे कहने का मतलब यह बिलकुल भी नहीं है कि ये सब कहानी बनायी जा रही है। मेरा कहना है कि इतनी संवेदनहीनता किसी समाज में कैसे हो सकती है। मुज़फ्फरपुर बहुत ज्यादा विकसित भी नहीं है जहाँ लोगों को अपने आसपास हो रही घटना की सुध न हो।
खैर ये तो हुई समाज की बात। अब थोड़ा राजनीति के गलियारों में चलते हैं। दो टूक बात ये है कि ज्यादातर नेताओं की हवस का शिकार मासूम बच्चे लड़का या लड़की बन ही जाते हैं। आम इंसान भी करता है ऐसी शर्मनाक हरकत पर ऐसे थोक में नहीं कर सकता। किसी भी खबर का राजनीतिकरण करना और प्रदर्शन करना मेरे समझ से फ़िलहाल तो बाहर है। क्योंकि मेरा मानना है कि सुशासन से सबकुछ संभव है। लेकिन, बिहार में सुशासन से कुछ और जुड़ा है।
जब बात निकल ही गयी है तो पुलिस को क्यों छोड़ दें। पुलिस भ्रष्ट है तभी तो ऐसे मामले आ रहे हैं। अरे कोई लड़की खुद भटक के तो बालिका गृह जैसी जगह नहीं पहुँचती है, जबतक पुलिस मदद न करे। पुलिस वाले इतने मासूम नहीं होते कि उनको समझ न आए की कहा धंधा होता है और कहां नहीं।
इनसब पर जब इतना इलज़ाम लगा ही दिया है तो मीडिया को कैसे बख्श दें। जनता को भरमाने में, झूठ तथा सनसनीखेज समाचार परोसने में सबसे अव्वल और अहम् मीडिया ही है। मसाले की तलाश करने में व्यस्त मीडिया पत्रकारिता को बहुत पीछे छोड़ आया। कुछ ही गिने चुने लोग रह गए हैं जो समाज के लिए सच में चिंतित हैं।
ऐसी असंवेदनशीलता बहुत घातक है। समाज तथा इंसानियत दोनों को ही शर्मसार करने जैसा वाक़या आजकल दिनदूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है।
वो सारे मूल्य तथा संस्कार जिसके लिए हम जाने जाते थे सब खत्म हो रहे हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी हार इसी बात से दिखती है कि हमारी मूल्य रहित शिक्षा हमारे समाज को संवेदनहीन बना रही है। जहाँ तक प्रजातंत्र की बात है वो हमारे देश में पूरी तरह से फलफूलने से पहले खत्म हो रही है। अब या तो लेफ्ट है या राइट। दोनों में से जो हो, प्रजा कहीं नहीं है।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं, इससे फोरम4 का सहमत होना कतई जरूरी नहीं है)
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