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नरेंद्र मोदी को हराना चाहते हैं चंद्रशेखर या जिताना?

यदि चंद्रशेखर सपा-बसपा गठबंधन के साथ न मिलकर उनके विरूद्ध चुनावी मैदान में उतरते हैं तो ऐसा न हो कि नायक बनते-बनते वह दलित समाज के खलनायक न बन जाएँ…

वरिष्ठ लेखक जयप्रकाश कर्दम का विश्लेषण

पिछले कुछ दिनों से, विशेष रूप से जब से लोकसभा चुनावों की सरगर्मी तेज़ हुई है, चंद्रशेखर ‘रावण’ को मीडिया की ओर से काफ़ी स्पेस दिया जा रहा है। कुछ दिन पहले बिना प्रशासनिक अनुमति के रैली करने के लिए उनकी गिरफ़्तारी और दो दिन पहले उनकी हुंकार रैली की ख़बर को कई न्यूज़ चैनलों द्वारा दिखाया गया। अब वाराणसी से उनके चुनाव लड़ने की घोषणा को कई राष्ट्रीय समाचार-पत्रों द्वारा प्रमुखता से प्रकाशित किया गया है। चंद्रशेखर को मीडिया में स्थान मिले यह अच्छी बात है। चंद्रशेखर ही क्यों, विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दलित-बहुजन समाज की सभी प्रमुख हस्तियों को देश के मीडिया में समुचित स्थान मिलना चाहिए, तभी मीडिया का स्वरूप लोकतांत्रिक बनेगा तथा समाज और राष्ट्र के लोकतांत्रिक बनाने की दिशा में उसका यह एक महत्वपूर्ण क़दम होगा, जिसकी उससे अपेक्षा है। ऐसा करके मीडिया देश में बन रही अपनी दलित-बहुजन विरोधी छवि से भी उबर सकेगा। किंतु, मीडिया की ऐसी कोई सदिच्छा दूर-दूर तक दिखायी नहीं देती है। दलित-बहुजनों के प्रति शोषण और अन्याय के प्रतिकार तथा न्याय के लिए उनके संघर्ष को देश के मीडिया का कोई समर्थन नहीं है। समर्थन तो दूर की बात है उनके बड़े-बड़े प्रदर्शनों, रैलियों और अन्य घटनाओं तक को भी वह अपनी ख़बरों में कोई ख़ास जगह नहीं देता है। इसके विपरीत, दलित-बहुजन विरोधी विचारों, व्यक्तियों और घटनाओं को प्रमुखता से दिखाता है। यह सब दलित-बहुजनों के प्रति देश के मीडिया की द्वेषपूर्ण और नकारात्मक सोच और उसके चरित्र को परिलक्षित करता है।

इसलिए चंद्रशेखर को मीडिया की ओर से प्रमुखता दिया जाना इस दिशा में सोचने को बाध्य करता है। सवाल यह है कि चंद्रशेखर ‘रावण’ क्यों अचानक से मीडिया के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि उनकी हुंकार रैली से लेकर चुनाव लड़ने की घोषणा तक मीडिया की बड़ी ख़बर बन रही है। जबकि इसके बरक्स मायावती और अखिलेश यादव जैसे बड़े बहुजन नेताओं की रैलियां, वक्तव्य और घोषणाएं मीडिया की ख़बर नहीं बन रहे हैं। केंद्र और अधिकांश राज्यों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी तथा उसकी सरकार की नीतियों और नेताओं के वक्तव्यों के प्रति सकारात्मक भाव पैदा करने वाली तश्वीर और समाचारों की ही मीडिया में प्रायः भरमार रहती है। ऐसे में यह प्रश्न उभरना अस्वाभाविक नहीं है कि जो मीडिया मायावती और अखिलेश यादव जैसे बड़े नेताओं को भी अपेक्षित महत्व नहीं देता, और दलित-बहुजनों के प्रति प्रायः: उदासीनता और उपेक्षा का भाव रखता है, वह चंद्रशेखर ‘रावण’ के प्रति इतना उदार कैसे है कि उसकी रैली और चुनाव लड़ने की घटना को इतना महत्व दे रहा है। मीडिया के इस क़दम को यदि थोड़ी देर के लिए दलित-बहुजनों के प्रति उसकी उदारता मान लिया जाए तो उसकी यह उदारता चंद्रशेखर जैसे चेहरों तक ही सीमित क्यों है, उसका विस्तार दलित-बहुजन समाज की अन्य हस्तियों की गतिविधियों और उनकी वैचारिकी तक क्यों नहीं है।

जिस प्रकार आज चंद्रशेखर को मीडिया द्वारा स्पेस दिया जा रहा है, वैसी ही स्थिति गुजरात विधान सभा के पिछले चुनावों में जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकुर की थी। भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपनी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए दोनों ही युवा नेताओं का इस्तेमाल करने का प्रयास किया गया था। यद्यपि भाजपा का यह प्रयास सफल नहीं हुआ था और दोनों ही युवा नेता उसके राजनीतिक खेल का हिस्सा नहीं बन सके थे। उसी तरह का प्रयास अब चंद्रशेखर के मामले में दिखाई देता है। बाहर से वह भले ही भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की आलोचना करे और उनके विरूद्ध बयान दें किंतु वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरूद्ध उनके चुनाव लड़ने की घोषणा से वह भाजपा का मोहरा बनते दिखायी दे रहे हैं।

चंद्रशेखर अभी युवा हैं, और उनके अंदर युवोचित भावुकता भी है। इसके साथ ही उनके अंदर अपने समाज के लिए कुछ करने का उत्साह और जुनून है। समाज को ऐसे उत्साही युवाओं की बहुत आवश्यकता है। समाज को समानता के अधिकार के प्रति जागरूक बनाने और शोषण का प्रतिकार करने हेतु प्रेरित करने के लिए यह आवश्यक होता है कि समाज के बीच रहकर सामाजिक आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी जाए। राजनीति आंदोलनधर्मी चेतना को सोख लेती है और अपनी पेचीदगियों में उलझाकर आंदोलन से अलग कर लेती है। चंद्रशेखर राजनीति की पेचीदगियाँ शायद उतनी अच्छी तरह से अभी नहीं समझते हों। उनके जैसे क्रांतिकारी और ऊर्जावान युवक को अपने अंदर की आग को मरने या बुझने नहीं नहीं देना चाहिए। उनको उन लोगों से सीखना चाहिए जो राजनीति में आने से पहले बहुत क्रांतिकारी थे, किंतु राजनीति में आने के कुछ वर्षों के अंदर ही उनकी आंदोलनधर्मिता शांत हो गयी। चंद्रशेखर को राजनीति में आने की जल्दबाज़ी से उनको बचना चाहिए था।

यदि चंद्रशेखर अपनी घोषणा पर अमल करते हुए वाराणसी से नरेंद्र मोदी के विरूद्ध लोक सभा का चुनाव लड़ते हैं, और सपा-बसपा गठबंधन के साथ मिलकर लड़ने के बजाए भीम आर्मी के बैनर के साथ लड़ते हैं तो वह मोदी को हराने का नहीं अपितु अप्रत्यक्ष रूप से उनको जिताने का काम ही करेंगे। क्योंकि उनको दलित समाज का वही वोट मिलेगा जो सपा-बसपा गठबंधन को मिलना सम्भावित है। ऐसे समय में जब दलित-पिछडा वर्ग अपने हितों के प्रतिकूल काम करने वाली भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता से उखाड़ फेंकने पर आमादा हैं और सपा-बसपा गठबंधन भाजपा को कड़ी चुनौती देता दिखायी दे रहा है, चंद्रशेखर ‘रावण’ द्वारा अलग से चुनाव लड़ने से उनको भले ही कुछ लाभ मिल जाए किंतु भाजपा विरोधी बहुजन समाज की चेतना को बहुत बड़ा झटका लग सकता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मायावती की राजनीतिकि दिशा और मूल्य बिलकुल सही हैं, अपितु मायावती के नेतृत्व में सपा-बसपा गठबंधन आज के समय बहुजन समाज की आवश्यकता और माँग है।

पिछले समय के दौरान पहले अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न निवारण एक्ट और फिर विश्वविद्यालय और शिक्षा संस्थानों में 200 प्वाइंट रोस्टर को समाप्त कर विभागवार 13 प्वाइंट रोस्टर लागू किए जाने के बाद उस निर्णय को निरस्त कराने के लिए देश के बहुजन समाज को सड़कों पर उतरकर विशाल प्रदर्शन और आंदोलन करना पड़ा। इससे, दलित-बहुजन समाज में भारतीय जनता पार्टी की नकारात्मक छवि बनी है। भाजपा से दलित-बहुजन समाज का न केवल मोह भंग हुआ है, बल्कि दलित-बहुजन विरोधी कार्यों के लिए सबक़ सिखाने के लिए वह हर हाल में भाजपा को हराना चाहता है। यदि चंद्रशेखर सपा-बसपा गठबंधन के साथ न मिलकर उनके विरूद्ध चुनावी मैदान में उतरते हैं तो ऐसा न हो कि नायक बनते-बनते वह दलित समाज के खलनायक न बन जाएँ।

(नोटः प्रस्तुत लेख में लेखक के अपने निजी विचार हो सकते हैं, जिनसे फोरम4 का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है)

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

लोकसभा चुनाव-2019 से सम्बन्धित सभी प्रविष्टियों को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें.

About the Author

जयप्रकाश कर्दम
जयप्रकाश वरिष्ठ लेखक व हिन्दी साहित्यकार हैं। उन्होंने दलित समाज की सच्चाइयों को सामने लाने वाली अनेक निबंध व शोध पुस्तकों की रचना व संपादन भी किया है।

3 Comments on "नरेंद्र मोदी को हराना चाहते हैं चंद्रशेखर या जिताना?"

  1. रामजी यादव | March 18, 2019 at 2:48 PM | Reply

    बहुत सही और मौजूं विश्लेषण. चंद्रशेखर रावण को भाजपा की चाल को समझते हुए अपनी रणनीति बनानी चाहिए.

  2. Harish Mangalam | March 18, 2019 at 6:13 PM | Reply

    Absolutely right. Many downtrodden people don’t understand and indirectly support to rightist wings eg. they fight election independently, be the candidates of small parties and divide the Dalits’ votes. This should immediately be stopped.

  3. भगवत प्रसाद मयुर विहार 3 दिल्ली | March 18, 2019 at 10:15 PM | Reply

    पद कर बहुत अच्छा लगा। रावण जी को सर्यम्म से काम लेना चाहिए

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