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क्या ऐसे कानून की जरूरत है जिससे किसी नागरिक के सिर पर गिरफ्तारी की तलवार लटकी रहे!

तस्वीरः गूगल साभार

-पूजा श्रीवास्तव

भारत में कई बार ऐसा हो चुका है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बदलने के लिए संसद कानून ही बदल देती है। एक बार फिर शायद ऐसा ही होने जा रहा है। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निवारण) कानून 1989 से संबंधित फैसले को बदलने के लिए विधेयक प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। इससे एक बार फिर से राजनीति गर्म हो गई है। क्योंकि इस विधेयक के पास होने के बाद अगर प्रावधान हुआ कि बिना मामले की जांच और बड़े अधिकारी की अनुमति के गिरफ्तारी की जा सकती है तो इसका गलत प्रयोग होने से कोई रोक नहीं सकेगा। हालांकि इससे देश में न्यायालय के फैसले के विरोध में जो दलित संगठनों की ओर से 9 अगस्त को देशव्यापी आंदोलन छिड़ने वाला था, उसे रोकने के लिए सरकार ने अच्छी चाल चली है।

क्या है पूरा मामला

अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निवारण) कानून 1989 के तहत यदि कोई भी उत्पीड़न की शिकायत मिलती है, तो बिना जांच के गिरफ़्तारी तथा कार्यवाही का प्रावधान था, जिसे इसी साल मार्च में उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी। साथ ही एफआईआर के बाद गिरफ्तारी से पहले प्राथमिक जांच का प्रावधान कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि अग्रिम जमानत पर कोई रोक नहीं होगी।

उच्चतम न्यायालय के फैसले के खिलाफ देश में भारी विरोध हुआ और दलित समूह धरना-प्रदर्शन करने पर उतर आए। इसी क्रम में दलित समूहों ने 2 अप्रैल को एक देशव्यापी आंदोलन किया था। इसमें तीन राज्यों के 12 लोगों की मौत हो गई। बीजेपी के भी सहयोगी, जिसमें लोक जनशक्ति पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) और जनता दल (यू) ने भी विरोध करना शुरू कर दिया था। इतना ही नहीं बीजेपी के भी दलित नेताओं ने इसका विरोध शुरू कर दिया। इससे सरकार पर दबाव बढ़ गया।

इसके बाद एससी-एसटी मसले पर केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में पुनर्विचार याचिका भी दायर की थी। इसमें सरकार का पक्ष रखते हुए महान्यायवादी केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट कहा था कि संसद की ओर से बनाए गए कानून को अदालत नहीं बदल सकती है।

न्यायालय ने 16 मई, 2018 को अनुसूचित जाति व जनजाति एक्ट पर अपने फैसले के संशोधन से इन्कार कर दिया था। सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा कि संसद भी निर्धारित प्रक्रिया के बिना किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की इजाजत नहीं दे सकती है। अदालत ने अपने फैसले में सिर्फ निर्दोष लोगों के जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की रक्षा की है। जस्टिस आदर्श गोयल और उदय यू ललित की खंडपीठ ने यह भी टिप्पणी की थी कि अगर एकतरफा बयानों के आधार पर किसी नागरिक के सिर पर गिरफ्तारी की तलवार लटकी रहे तो समझिए कि हम सभ्य समाज में नहीं रह रहे हैं। अदालत का निर्देश आने के बाद दलित हितों की रक्षा को लेकर बहस शुरू हो गई थी।

दलित समूहों ने सरकार के उच्चतम न्यायालय के आदेश को वापस न लिए जाने की शक्ल में एक देशव्यापी बंद का ऐलान अगस्त की 9 तारीख के लिए किया था। वहीं, बीजेपी का कहना है कि उन्होंने दलितों के लिये कई सारी पहल की हैं। देश की कुल आबादी में दलितों की संख्या 16 फीसद है। बीजेपी चाहती है कि दलितों की समस्याओं से जुड़े और इस आरोप से बचे कि सरकार दलित विरोधी है।
नये विधेयक को कैबिनेट के मंजूरी देने के साथ ही सरकार ने दलित संगठनों से अपील की है कि नौ अगस्त को होने वाले बंद को वे वापस ले लें।

क्या हो सकता है इस प्रावधान में

उम्मीद की जा रही है कि मानसून सत्र में 9 अगस्त से पहले ही संसद में फैसला हो जाये। कानून के सेक्शन 18 में कुछ क्लॉज़ जोड़ने की सम्भावना है। पहला, गिरफ्तारी के लिये किसी इजाजत की जरूरत नहीं होगी। दूसरा, अग्रिम गिरफ्तारी का कोई प्रावधान नहीं होगा।
ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को इस विधेयक के जरिए पलट दिया गया है। हालांकि, यह कहना अभी सही नहीं है कि विधेयक के पास हो जाने पर पहले वाली स्थिति ही लागू हो जायेगी, क्योंकि नये विधेयक पर चर्चा के दौरान उसमें कई नई चीजों के जुड़ने की संभावना भी जताई जा रही है।

ऐसे कानून की क्या है प्रासंगिकता

अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए हमारे संविधान में बहुत सारे कानून बनाये गए। इसका कारण हमारे समाज में फैली वर्ण व्यवस्था थी। हमारे यहाँ की चार वर्ण एक अनुक्रम में होते हैं, जिसमें अनुसूचित जाति तथा जनजाति का क्रम सबसे नीचे माना गया है। इन तथाकथित निचली जाति के लोगों को अस्पृश्य मान जाता था, मंदिर में प्रवेश वर्जित था, संस्कृत पढ़ने पर रोक था तथा इसके अलावा उन पर बहुत सारी पाबन्दियां लगाई जाती थीं।

संविधान बनाने के समय सारी बातों को ध्यान में रखा गया तथा सबको एक समान स्तर पर लाने की पूरी कोशिश, संविधान में दिए गए कानून तथा अधिकार के माध्यम से की गयी। मौलिक अधिकार में अस्पृश्यता को अपराध माना गया।

बहुत सारी कोशिशों के बाद भी समाज से अस्पृश्यता पूरी तरह नहीं गयी। इसलिए 1955 में अस्पृश्यता उनमूलन के लिए अस्पृश्यता (अपराध) कानून  पारित किया गया। इसके बाद 1976  इसका संशोधन किया गया तथा इसका नाम सिविल अधिकार संरक्षण अधनियम रख दिया गया। 1989 में फिर से इस कानून में बदलाव किये गए और यही अब अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निवारण) कानून 1989 के नाम से जाना जाता है।

2015 में इस कानून को और शख्त बनाया गया, इसमें उत्पीड़न की परिभाषा में और अधिक कृत्यों को जोड़ा गया जैसे सर और मूंछ मुंडाना, चप्पलों की माला पहनाना, जनजाति महिलाओं को देवदासी बनाना इत्यादि।

कानून का दुरुपयोग ज्यादा

लेकिन, इस कानून के बाद भी समस्या खत्म होने के बजाय बढ़ती जा रही थी। इसका अंदाजा एक रिपोर्ट से लगा सकते हैं, जिसमें यह बताया गया है कि कुल जितने मामले आये उनमें से 2150 मामले सही थे, लेकिन सुबूत काफी नहीं थे, 5347 मामले फ़र्जी थे और 869 मामलों में तथ्य को गलत बताया गया।

एक अन्य रिपोर्ट जो की एनसीआरबी द्वारा 2017 में सामने आया, जिसमें बताया गया कि गत बीते वर्ष के 15498 मामले लम्बित हैं जबकि गत वर्ष में 40801 मामले दर्ज किये गए।

इन सब आंकड़ो से यह पता चलता है कि अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति की समस्या के अतिरिक्त दो समस्याओं ने और घर कर लिया है। पहला, फ़र्जी मामले दर्ज करवाना; दूसरा, लंबित मामलों का तेज़ी से बढ़ते जाना।

इन सारी समस्याओं को संज्ञान में लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने तत्काल गिरफ़्तारी के प्रावधान को मार्च में निरस्त कर दिया था अर्थात बिना जांच के किसी को गिरफ्तार करने पर पाबंदी लगाई। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला गत आंकड़ो पर आधारित थे। फ़र्ज़ी मामलों को रोकना जरूरी है जिससे लंबित मामलों में कमी आएगी तथा वास्तविक मामलों में न्याय हो सके।

फैसला आने पर चारो तरफ देश में खलबली मच गयी। तथा कथित दलित समाज के अग्रेताओं ने बिना कुछ सोचे फैसले को गलत बताया।

न्यायालय के फैसले को पीछे छोड़ती दलित राजनीति

संविधान बनाने वालों को पहले उम्मीद होगी कि आनेवाले दिनों में दलितों के हालात में सुधार होगा, पर यहाँ कुछ दलित संगठनों की गन्दी राजनीति ने पूरे समुदाय को ही मूक बनाने को विवश कर दिया है। उसका निर्णय ही पूरे समाज का निर्णय मान लिया जा रहा है। जोकि खुद को सशक्त करने के लिए प्रदर्शन करके अपने आपको सही ठहराने में लगे हुए हैं। सामाजिक न्याय और समानता पर आधारित न्याय मात्र चंद लोगों की ओर से की जा रही राजनीतिकरण के साये में झूल रही है। इसलिए वे इतने स्वार्थी नजर आ रहे हैं कि एक ओर तो न्याय की बात कर रहे हैं तो दूसरी ओर बेगुनाह व निर्दोष लोगों को भी आसानी से जेल में पहुंचाने में सहायक कानून का समर्थन भी करते नजर आ रहे हैं।

किसी तरह का उत्पीड़न गलत होता है चाहे वह दलित का हो या सामान्य जाति के लोगों का। ऐसा माना जाता है कि मनुष्य विवेकशील प्राणी है। विवेक से समझा जाये तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को कुछ समय दिया जा सकता है। पर, ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि हमारे देश की राजनीति की नींव ही फायदे और नुकसान पर टिकी है।

ऐसा लगता है सरकार को न्यायालय के फैसले को निरस्त करने की आज बहुत जरूरत है, वो भी इसी सत्र में नहीं तो वोट नहीं मिलेगा और वोट गया तो कुर्सी भी गयी।

सोचनीय बात है कि क्या हमारी व्यवस्था इतनी कमजोर है, कि 16 फीसद लोगों के नाम पर 84 फीसद लोगों के लिए एक ऐसा कानून का अस्तित्व बना रहे, जिससे हमेशा ही इन पर तलवार लटकती रहे, यह कहां तक सही है।

एक बात और यह है कि कानून चाहे कुछ भी बना दिया जाये जब तक कार्यान्वयन सही तरीके से नहीं होगा तब तक जनता लाचार ही रहेगी चाहे वो अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति की हो या सामान्य जाति की ही क्यों न हो। कानून अगर दलितों के हित में बने तो ऐसा भी हो कि कोई इसका गलत फाय़दा न ले सके, ताकि किसी निर्दोष को सजा न मिल सके। ताकि किसी दूसरे समुदाय की रक्षा भी हो सके और किसी एक दोषी को सजा न मिले अगर उसकी खातिर एक निर्दोष व्यक्ति को सजा मिलती हो।

(ये लेखिका के स्वतंत्र विचार हैं, फोरम4 का इससे सहमत होना कतई जरूरी नहीं है) 

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

1 Comment on "क्या ऐसे कानून की जरूरत है जिससे किसी नागरिक के सिर पर गिरफ्तारी की तलवार लटकी रहे!"

  1. Keep it up…

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