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दिल्ली सरकार का न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने का फैसला रद्द, क्या हमारे मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी मिल रही है

गूगल साभार

-रवींद्र गोयल 

दिल्ली हाई कोर्ट ने गत चार अगस्त को दिल्ली सरकार का न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने का फैसला रद कर दिया। हाई कोर्ट ने कहा कि यह फैसला बिना किसी आधार पर सरकार द्वारा बिना दिमाग लगाये किया गया। कोर्ट का यह भी मानना था कि ऐसा फैसला संविधान के विरुद्ध है। कार्यवाहक न्यायमूर्ति गीता मित्तल एवं न्यायमूर्ति सी हरिशंकर की पीठ ने यह निर्णय व्यापारियों, पेट्रोल कारोबारियों व रेस्तरां चालकों के संघ द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया। याचिका में मांग की गई थी कि चूंकि‍ सरकार ने उनकी बात सुने बिना यह फैसला लागू किया है इसलिए इसे रद्द किया जाए। यही नहीं, उपरोक्त पीठ ने सितम्बर 2016 में  न्यूनतम मजदूरी पर बनाए गए एडवाइजरी पैनल की अधिसूचना को भी प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध और बिना पर्याप्त दस्तावेज़ के बताते हुए रद्द कर दिया।

बता दें कि दिल्ली सरकार के मजदूरी बढ़ाने के फैसले को पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग ने भी रोका था और फिर काफी जद्दोजहद के बाद दिल्ली सरकार  ने मार्च 2017 में अकुशल, अर्ध कुशल और कुशल श्रमिकों की मजदूरी पहले के मुकाबले करीब 40 फीसद बढ़ाई थी। बढ़ने के बाद मजदूरी इस प्रकार थी-

 

मजदूर श्रेणी बढ़ोत्तरी से पहले प्रति माह मजदूरी (रुपये में) बढ़ोतरी के बाद प्रति माह मजदूरी (रुपये में)
अकुशल 9724 13950
अर्ध कुशल 10764 14698
कुशल 11830 16182

 

दिल्ली सरकार ने उपरोक्त राशि किस हिसाब से तय की यह तो पता नहीं, लेकिन भारत में 1948 में ब्रिटिश पोषण विशेषज्ञ Mr. Wallace R Ayckroyd ने एक भारतीय मजदूर की खाद्य सम्बन्धी जरूरतों को 2700 कैलोरी प्रतिदिन (जिसमें 65 ग्राम प्रोटीन) आँका था। 1957 में इंडियन लेबर कांफ्रेंस ने इस मानदंड को न्यूनतम मजदूरी तय करते समय स्वीकार किया। इन सिफारिशों के अनुसार, एक काम करने वाले व्यक्ति को कम से कम इतनी मजदूरी तो मिलनी ही चाहिए कि वो 3 उपभोग इकाइयों के परिवार का भरण पोषण कर सके। ( यह इस मान्यता पर आधारित है कि औसत परिवार संख्या 4 की है यानी कि 2 वयस्क और 2 बच्चे) प्रति परिवार 72 गज  प्रति वर्ष कपड़ा मिल सके, सरकार की औद्योगिक आवास योजना के तहत प्रदान किए गए न्यूनतम क्षेत्र का माकन किराये पर मिल सके तथा इस पर 20% खर्च के रूप में ईंधन, प्रकाश और अन्य विविध वस्तुओं के लिए मिल सके। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने (Unichoy vs State of Kerala in 1961 and Reptakos Brett Vs Workmen case in 1991) मामलों में बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा उपचार, मनोरंजन, त्योहारों और समारोहों का खर्च शामिल करने के लिए उपरोक्त मजदूरी में 25% और जोड़ने का फैसला दिया।

अर्थशास्त्रियों ने हिसाब लगाया है कि उपरोक्त सभी मदों को शामिल करने पर आज की कीमतों के हिसाब से मजदूर को कम से कम 26000 रुपये प्रति माह मिलना चाहिए। सातवें वेतन आयोग ने भी उपरोक्त आधार को स्वीकार करते हुए 1 जनवरी 2016 के लिए न्यूनतम मजदूरी 18000 रुपये महीना तय की। वास्तव में राशि ज्यादा बनती थी पर आयोग ने कहा कि सरकारी कर्मचारियों को अन्य भत्ते भी मिलेंगे, जैसे शिक्षा भत्ता, यात्रा भत्ता, परिवहन भत्ता आदि। इसलिए इस राशि को 18000 रुपये महीना ही रखा। ( देखें 7वें पे कमीशन रिपोर्ट पेज- 60)  यह भी ध्यान रहे कि सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ता भी दिया जाता है। यह भत्ता, 1 जून 2018 से,  1 जनवरी 2016 के तय वेतन का 7 प्रतिशत है। अर्थात सातवें वेतन आयोग के अनुसार, न्यूनतम मजदूरी, यदि विभिन्न भत्तों को छोड़ भी दिया जाये तो, 19260 रुपये महीना बनती है।

यह 7वें पे कमीशन द्वारा न्यूनतम मजदूरी, हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति समेत सभी सरकारी कर्मचारियों के ताज़ा वेतन का आधार है। बड़ी अजीब बात है कि जो न्याय के कर्णधार पे कमीशन द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन के आधार अपना बढ़ा हुआ वेतन उठा रहे हैं उन्हें दिल्ली सरकार द्वारा उससे कम निर्धारित मजदूरी का फैसला भी संविधान के विरुद्ध लगता है।
बहुत पहले निशांत नाट्य मंच द्वारा गाया जाने वाला, बेर्टोल्ट ब्रेक्ट लिखित गीत याद आता है उसके कुछ शब्द यूँ हैः

वो सब कुछ करने को तैयार

सभी अफसर उनके

जेल और सुधार-घर उनके

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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