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पर्यावरण दिवस विशेष : ग्लोबल वार्मिंग या ग्लोबल वार्निंग

तस्वीरः गूगल साभार

भारत ही नहीं विश्व के लिए आज सबसे बड़ी अगर कोई समस्या है तो वह है ग्लोबल वार्मिंग। शायद आज भी बहुत से लोग इस समस्या से परिचित न हों तो सरल शब्दों में मैं आपको बता दूँ कि ग्लोबल वार्मिंग यानि पृथ्वी पर ऊष्मा का बढ़ना। वर्तमान में आपने देखा होगा कि निरंतर गर्मी बढ़ती जा रही है और मौसम में काफी बदलाव देखने को मिले हैं। इससे बारिश के समय में अनिश्चितता आई है जो फसलों के लिए एक बहुत बुरी खबर है। आज दिन प्रतिदिन जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है और इसे जल्द नियंत्रण में नहीं लाया गया तो वह दिन दूर नहीं जब विश्व में एक बहुत भयानक जनसंख्या विस्फोट होगा। बढ़ती जनसंख्या से कारण ही अधिक से अधिक संसाधनों का दोहन किया जा रहा है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों का बहुत तेजी से लुप्त होना शुरू हो गया है। आज यातायात के साधन बहुत बड़ी मात्रा में सड़कों पर हैं, जिससे निकलने वाला धुआं वातावरण को अत्यधिक प्रदूषित कर रहा है। बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां, कारखानों का धुआं, ध्वनि ही नहीं बल्कि एक बड़ी मात्रा में नदियों को यानी जल को भी प्रदूषित कर रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के लिए जितने विकसित देश जिम्मेदार हैं उतना ही विकासशील देशों का इसको बढ़ाने में योगदान है।

पिछले कुछ वर्षों में हम सब ने यह महसूस किया है कि मौसम का मिजाज काफी बदला है। जिन स्थानों पर पहले बहुत अधिक वर्षा होती थी, वहाँ अब पहले जैसी वर्षा नहीं हो रही है। जिन स्थानों पर कभी वर्षा नहीं होती थी वहां इतनी बारिश हो रही है कि बाढ़ आ जाती है। गर्मी के मौसम में बहुत ज्यादा गर्मी पड़ने लगी है तो सर्दी के मौसम में बहुत ज्यादा सर्दी। वर्षा ऋतु में ठीक से वर्षा नहीं होती, तो कभी बेमौसम खूब पानी बरसता है। वैज्ञानिकों ने लंबे परीक्षण के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि जलवायु में आई इस अनिश्चितता का कारण ग्लोबल वार्मिंग है। ग्लोबल वार्मिंग की संकल्पना पृथ्वी के बढ़ते हुए तापमान से जुड़ी हुई है। विश्व में औद्योगिक क्रान्ति के बाद पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों की तेजी से वृद्धि हुई है। कार्बन डाइऑक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों में यह खासियत होती है कि वह सूर्य से आने वाली किरणों के द्वारा जो ऊष्मा आती है वह उस ऊष्मा को पूरी तरह लौटने नहीं देती। और उसके थोड़े से हिस्से को पृथ्वी के वातावरण में ही रोक लेती हैं। इसके कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ता है। पृथ्वी में जीवन संभव होने के लिए यह होना जरूरी है, नहीं तो पूरी पृथ्वी बर्फ से ढंक जाएगी।

लेकिन, यही गैसें जब आवश्यकता से अधिक ऊष्मा रोक लेती है तो पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ने लगता है और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पैदा हो जाती है। पिछले सौ वर्षों में औद्योगिक क्रांति के कारण कार्बन डाइऑक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों का अनुपात वातावरण में बढ़ा है। तेजी से पेड़ों की कटाई, कारखानों और वाहनों की बढ़ती संख्या, जीवाश्म इंधनों का उपयोग, मनुष्य की बढ़ती आबादी ने इन गैसों की मात्रा बढ़ाने में मुख्य योगदान दिया है। जैसे-जैसे इन गैसों की मात्रा बढ़ी, इनके द्वारा रोकी जानेवाली सूर्य की ऊष्मा की मात्रा भी बढ़ी और हमें आज ग्लोबल वार्मिंग का सामना करना पड़ रहा है। इससे पिछले सौ वर्षों में पृथ्वी के औसत तापमान में लगभग 0.74 अंश सेल्सियस की वृद्धि हुई है। इस थोड़ी सी वृद्धि के कारण ध्रुवों की बर्फ का पिघलना तेज हो गया है। जिससे समुद्र में पानी का स्तर बढ़ रहा है। समुद्र के आसपास के कई देश और शहर डूबने की कगार पर है। ग्लेशियरों के पिघलने और से नदियों के लुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। हमारे देश की गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियाँ जिनका जन्म ग्लेशियरों से होता है, उनके लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। वर्षा की अनिश्चितता के कारण बाढ़ और सूखे की समस्या पैदा हो रही है। मौसम में बदलाव की तीव्रता बढ़ गई है। पेड़ों और पशुओं की कई प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं। नए-नए रोग पैदा हो रहे हैं। खेतों में पैदावार कम हो गई है। पूरे मनुष्य जाति का भविष्य खतरे में पड़ गया है। ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों को रोकने के लिए हमें तत्काल कठोर कदम उठाने पड़ेंगे।

हमें वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों का अनुपात कम करना होगा। इसके लिए यह जरूरी है कि हम जीवाश्म ईधनों का उपयोग कम से कम करें। कारखानों में ऐसी तकनीकों का प्रयोग करें जिससे प्रदूषण कम हो और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन न हो। वाहनों के द्वारा होने वाले विषैले और गर्म धुएं के उत्सर्जन पर नियंत्रण जरूरी है। हमें उर्जा के ऐसे स्रोतों का उपयोग करना चाहिए, जिसमें कार्बन का प्रयोग कम से कम मात्रा में होता हो या न होता हो, जैसे सौर ऊर्जा, परमाणु ऊर्जा और पवन ऊर्जा आदि।

पेड़ों को कटने से बचाना होगा व अधिक से अधिक पेड़ लगाने होंगे। ग्लोबल वार्मिंग के विरुद्ध हमारी जो लड़ाई है उसमें पेड़ हमारे सबसे बड़े सहायक हैं। ग्लोबल वार्मिंग की समस्या ने दुनिया के अनेक देशों को एक मंच पर ला दिया है। जिसमें, सन 1997 में तय हुए क्योटो प्रोटोकॉल के तहत दुनिया के कई देश कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करेंगे। वर्ष 2005 से यह प्रोटोकॉल लागू हुआ किंतु भारत और चीन इसके कई प्रावधानों से असहमत हैं।

यह दोनों देश ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल के तहत जो नीतियाँ अपनाई गई हैं उन्हें अपने देश के विकास में बाधक मानते हैं। ग्लोबल वार्मिंग जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर विभिन्न देश आपस की असहमति भुलाकर एक मंच पर आना ही होगा, क्योंकि और इसके कारण होनेवाले नुकसान का अंदाजा लगाना संभव नहीं है। आज जरूरत है हम ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाएं, कम से कम पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों का प्रयोग करें। अधिक से अधिक सार्वजानिक वाहनों का प्रयोग करें, थोड़ी दूरी के सफ़र के लिए पैदल व साइकिल का प्रयोग करें, जनसंख्या नियंत्रण में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करें, कम से कम प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करें, विलासिता की वस्तुओं को कम से कम प्रयोग में लायें, खेती योग्य भूमि पर आवासीय परिसर को रोकें, नदियों में नालों को मिलने से रोकें, बांध आदि का अनावश्यक निर्माण न करें, जमीनी जल यानी भूमिगत जल का निकास कम करें। एसी, फ्रिज के बजाय प्राकृतिक मटके व हवा का आनंद लें, अपनी प्राकृतिक विरोधी गतिविधियों पर नियंत्रण करें व ऐसा कुछ भी न करें जिससे प्रकृति व पर्यावरण को कोई नुकसान पहुँचे। क्योंकि ये पृथ्वी आपका घर है और अगर आपका घर ही असुरक्षित रहेगा तो आप भी असुरक्षित रहेंगे। इसलिए संसाधन बचाएं, उर्जा बचाएं व आने वाले कल के लिए जीवन बचाएं। और ये सब होगा आपकी और हमारी भागीदारी से क्योंकि कोई एक इन सबका जिम्मेदार नहीं है और न ही कोई एक इस समस्या से निजात दिला सकता है। इसलिए आप सब की भागीदारी ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए प्रासंगिक है नहीं तो आप इसे ग्लोबल वार्निंग के रूप में जल्द देखेंगे।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

दीपक वार्ष्णेय
राष्ट्रीय युवा कवि, लेेखक, समीक्षक

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